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भक्तामर-भाषा (लेखक-हजारीलाल 'काका' धुन्देलखण्डी) वीरवाणी, पाक्षिक पत्र के वर्ष ३५, अक ८ एव ९ से सामार उद्धृत) देवों के मुकुटो की मणियाँ, जिन चरणो मैं जगमगा रही, जो पाप रूप अंधियारे को दिनकर बन कर के भगा रही, जो भव सागर में पड़े हुये जीवो के लिये सहारे हैं, मन-वच-तन से उन श्री जिन के चरणो में नमन हमार है ॥ ५ ॥
श्रुतज्ञानी सुरपति लोकपति जिनके गुण गाते हर प्रकार, स्तोत्र विनय पूजन द्वारा बन्दन करते हैं बार-बार, जाश्चर्य माज में मन्द बुद्धि उन जादिनाथ के गुण गाता,
उनको भक्ति में मक्तामर भाषा मै लिख कर हर्षाता ॥२॥ जो देवो द्वारा पूज्य प्रभु. मैं उनके गुण गाने माया, होकर अल्पज्ञ ढीठता ही, अपनी दिसलाने को लाया, मतिमद हूँ उस बातक समान जिसके कुछ हाथ न माता है, प्रतिविम्ब चन्द्र का जल में लख लेने को हाय डुाता है ॥ ३ ॥
जब प्रलयकाल की वायु से सागर लहराता जोरो से, तिस पर मी मगरमच्छ घमें मुंह बाये चारो मोरो से ऐसे सागर का पार भुजाजो से क्या कोई पा सकता,
बस इसी तरह मैं मन्द बुद्धि प्रभु के गुण के से गा सकता ।।४।। जिस तरह सिंह के पजे मै बच्चा लख हिरणो जाती है, ममता वश सिंह समान बलो को अपना रोष जताती है, बस इसी तरह से शक्ति मैरी मुनिनाथ न स्तुति करने को, जो कहा मक्तिवश ही स्वामी है शक्ति न मक्ति करने की ॥ ५ ॥
ज्यों मान मजरी को लख कर कोयल मधुराग सुनाती है, वैसे ही तेरी भक्ति प्रभु जबरन गुण गान कराती है, है जल्प ज्ञान विद्वानो के सन्मुख यह दास हंसी का है, तेरी भक्ति की शक्ति ने जो कहा ये काम उसी का है॥६॥