Book Title: Jain Pooja Path Sangraha
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 429
________________ ४१३ उत्तम देश सुसगति दुर्लभ, श्रावककुल पाना। दुर्लभ सम्यक दुर्लभ मंगम, पञम गुण ठाना ॥ २४॥ दुर्लभ रत्नत्रय आराधन दीक्षा का धरना । टुलंभ मुनिवर को प्रत पालन, गुल भाव परना । दुर्लभ में दुर्लभ है तन, बोधिज्ञान पावै। पाफर रेचरमान नहीं पिर, इस भव में आवं ॥ २५ ॥ १२ धर्म भावना। पट सरशन जन पोर नास्तिक ने, जग को लूटा। मृना ना और मुहम्मद का, मजहब झूठा ॥ होमुरा सय पाप पर सिर, फरता ऐ लाव। फोई दिनक कोई परता से, जग में भटकाये ॥२६ ।। वीतराग सा दोप नि, नीजिन की वानी। मम तत्य का वर्णन नाम, ननको सुखदानी॥ इनमा चितवन बार-बार पर. असा उर धरना। 'मगन' मी सतनत फदिन, भवसागर तरना ।। २७ ।। पति नुमत नपुर निवासी गगतरायजीत बारह भावना समाप्त । वर्णी-वाणो की डायरी से - गन को शुद्धि विना काय शुद्धि का कोई महत्व नहीं । . जो मनुष्य अपने मनुष्यपने को दुलगता की ओर देखता है, वही ससार मे पार होने का उपाय अपने आप मोजता है।

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