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जैन पूरा गठ संग्रह
जे दुर्जन को नहीं जान देय ते निन्दक को ना दर देय | चल चन्द्र प्रभु के चौक माहि, दालाने वहां चौतर्फ आहि ॥ ११ ॥ वहां सभ्य सभा मण्डप निहार, तितकी रचना नाना प्रकार | तहां चन्द्रप्रभु के दरश पाय, फल जात ल्हो तर जन्म आय ॥ १२ ॥ प्रतिमा विशाल वहां हाथ सात. कायोत्सर्ग हा तुहात |
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बन्दे पूछें तहां देव दान, जननृत्य भजन कर मधुर पान ॥ १३ ॥ ता धेरै धेरै धेरै वाजत सितार, मृदङ्ग बीन मुहार । तिनकी ध्वनि तुनि भवि होत प्रेम, जयकार करत नाचत एव ॥ १४॥ ते स्तुति करके फिर नाय शीत, भवि चले तो कर कर्म खीत । इह सोनागिरि रचना अपार, वर्णन कर को कवि लहे पार ॥ १५ ॥ अति तनक बुद्धि 'आशा' तुपार. बस भक्ति कही इतनी दुगा । मैं मन्दबुद्धि किम लहों पार, बुद्धिवान चूक लीजे सुधार || १६ ||
ॐ ह्रीं श्री सोनागिरि णिक्षेत्रभ्यो नहायं निर्वस्वाहा ।
दोहा - सोनागिरि जयमालिका, लघुमति कहो नाय | प्रीतसे, तो नर शिवपुर जाय ॥
पढे सुने जो
इत्यादिः ।