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पाठ सग्रह
३६० प्रभुतन पर्वतपरस पवन उर में निवहै है। तासों ततछिन सकल रोगरज बाहिर है है। जाके ध्यानाहूत बसो उर अम्बुज माहीं। कौन जगत उपकार करन समरथ सो नाहीं॥ १०॥ जनम-जनम के दुःख सहे सब ते तुम जानो। याद किये मुझ हिये लग आयुध से मानो॥ तुम दयाल जगपाल स्वामि मैं शरण गही है । जो कछ करनो होय करो परमाण वही है ।। ११ ॥ मरन समय तुम नाम मन्त्र जीवकतै पायो। पापाचारी श्वान प्राण तज अमर कहायो । जो मणिमाला लेय जपै तुम नाम निरन्तर । इन्द्र सम्पदा लहै कौन संशय इस अन्तर ॥१२॥ जो नर निर्मल ज्ञान मान शुचि चारित साधै । अनवधि सुखकी सार भक्ति कूची नहिं लाधै ॥ सो शिववांछक पुरुष मोक्षपट केम उघारै। मोह मुहर दिढ करी मोक्ष मन्दिर के द्वारे ॥१३॥ शिवपुर केरो पंथ पापतमसों अति छायो। दुःखसरूप बहु कूप खाड सों विकट बतायो॥ स्वामी सुख सों तहां कौन जन मारग लागें । प्रभु प्रवचनमणिदीप जोन के आगें आगें ॥१४॥