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बालकवत निजदोष थकी इहलोक दु वी अति । रोगरहित तुम कियो कृपाकरि देव भुवनपति ॥ हित अनहितकी समझि मांहि है मन्दमती हम । सब प्राणिन के हेत नाथ तुम बालवैद सम ॥ ५ ॥ दाता हरता नाहिं सानु सबको बहकावत । ओजकालके छलकरि नित प्रति दिवस गुमावत ॥ हे अच्युत जो भक्त नमैं तुम चरण कमलको। छिनक एकमैं आप देत मनवांछित फलको ॥ ६ ॥ तुमसों सन्मुख रहै भक्तिसौं सो सुख पावै । जो सुभावतें विमुख आपतै दुःखहि बढ़ावै ।। सदा नाथ अवदात एक 'द्युति रूप गुसांई। इन दोन्यों के हेत स्वच्छ दरपणवत झाइ ॥ ७ ॥ है अगाध जलनिधि समुदजल है जितनो ही। मेरु तुङ्गसुभाव शिखरलौं उच्च भन्यो ही॥ वसुधा अर सुरलोक एहु इस भांति सई है। तेरी प्रभुता देव ! भुवनिळू लंघि गई है ॥ ८ ॥ है अनवस्था में परम सो तत्त्व तुमारे। कह्यो न आवागमन प्रभू मतमांहिं तिहारे ॥ दृष्ट पदारथ छांडि आप इच्छति अष्टको। विरुध वृद्धि तव नाथ समंजस होय सृष्टकौ ॥ ६ ॥