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न पूजा पाठ प्रह
वैराग्य भावना दोहा-बीज राख फल भोगवै, ज्यों किसान जगमांहिं । त्यो चक्री नृप लुख कर, धर्म विसारै नाहि ।।
.. योगीरासा छन्। इह विधि राज करै नरनायक, भोगै पुण्य विशालो। सुखसागर में रमत निरन्तर, जात न जान्यो कालो। एक दिवस शुभ कर्म संजोगे, क्षेसंकर मुनि बन्दे । देखे श्रीगुरु के पदपराज, लोचन अलि आनन्दे ॥ सील प्रदक्षिणा दे शिर लायो, करि पूजा थुति कीनी । साधु समीर विनय करि बैच्यो, चरणनमें दिठि दीनी ॥ शुरू उपदेश्यो धर्म-शिरोमणि, सुन राजा वैरागे। राजरमा वनितादिक जे रस, ते रस बरस लागे॥ सुनि सूरज कथनी किरणावलि, लगत भरम बुधिभागी। सवतन भोगस्वरूप विचारो, परम धरम अनुरागी । इह संसार महावन सीतर, नसते ओर न आवें । जासन मरण जरा दौं दाम, जीव महा दुःख पावे ॥ कबहूँ जाय नरक थिति झुंजै, छेदन भेदन भारी। कबहूँ पशु परजाय धरै तह, वध बन्धन भयकारी ॥ सुरगति में परलस्पति देखे, राग उदय दुःख होई । मानुष योलि अनेक विपतिमय, सर्व सुखी नहिं कोई ॥ कोई इष्ट वियोगी बिलखै, कोई अनिष्ट संरोगी। कोई दीन दरिद्री विगुचे. कोई तन के रोगी । किलही घर कलिहारी नारी के बैरी सम भाई।