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जैन पूजा पाठ सप्रह
आकुलित भयोअज्ञान पारि, ज्यों मृग मृग-तृष्णा जानि वारि तन-परणतिम आपो चितार, काहूँ न अनुभवो स्व-पदसार । तुमको विन जाने जो कलेश, पाये सो तुम जानत जिनेश । फ्यु-नारक नर सुर-गति-मझार, भव पर घर मरयो अनंत बार।। अब काललब्धि बलतै दयाल, तुम दर्शन पाय भयो सुशाल। मन शांतभयो मिटि सफल द्वन्द,चाख्योस्वातमरस दुखनिकंद ।। तातें अब ऐसी करहु नाथ, विधुरै न कभी तुअ चरण साथ । तुम गुणगगको नहिं छेव देव, जगतारन को तुम विरद एव ।। आतमके अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय । मैं रहूँ आपमें जाप लीन, सो करो होउँ ज्यों निजाधीन ॥ मेरे न चाह कछु और ईश, रत्नत्रय-निधि दीजै मुनीश । मुझ कारजके कारन सुआप, शिव करहु हरहु मम मोह-ताए । शशि शालिकरन तप हग्न हेत, स्वयमेव तथा तुम अशल देत। पीवत पियूप ज्यों रोग जाय, त्यों तुम अनुमवत् भव नशाय॥ त्रिभुवन तिहुंकालमंझार कोय, नहि तुम चिन निजसुखदाय होय मोउर यह निश्चय भयो आज, दुसजलषि उतारनतुम जिहाज।
दोहा - तुम गुणगण-मणिगणपती, गणत न पावहिं पार । 'दौल' स्वल्प-मति किमि कहै, नमूत्रियोग संभार ॥