________________
३५२
जैन पूजा पाठ सग्रह
यथा कथंचित भक्ति रचे विनयीजन केई। तिनकू श्रीजिलदेव मनोवांछित फल देही ॥ फुनि विशेष जो नमत सन्तजन तुमको ध्यावै । सो सुख जल 'धन-जय' प्रापति है शिवपद पावे ॥४॥ श्रावक माणिकचन्द सुबुद्धी अर्थ बताया। लो कवि 'शान्तिदास' सुगमकरि छन्द बनाया ॥ फिर फिरिक ऋषि रूपचन्द ने करी प्रेरणा । भाषा स्तोत्र 'विषापहार' की पढ़ो अविजना ॥४१॥
सुख
- हम ही अपनी शान्ति में वाधक है। जितने भी पदार्थ ससार में हैं उन में से एक भी पदार्थ शान्त स्वभाव का वाधक नहीं बर्तन में रक्खी हुई मदिरा अथवा डिब्बे में रक्खा हुआ पान पुरुषों में विकृति का कारण नहीं। पदार्थ हमें बलात् विकारी नहीं बनाता, हम स्वय मिथ्या विकल्पों से इष्टानिष्ट कल्पना कर सुखी और दुखी होते हैं। कोई भी पदार्थ न तो सुख देता है और न दुख देता है, इसलिये जहाँ तक बने आभ्यन्तर परिणामों की विशुद्धि पर सदैव ध्यान रखना चाहिए। - सुखी होने का सर्वोत्तम उपाय तो यह है कि पर पदार्थों में स्वत्व को त्याग दो।
- 'वर्णी वाणी' से