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पाश्र्वनाथ स्तोत्र ( भृधरकृत)
दोहा- -कर जिन पूजा अष्ट विधि, भाव भक्त जिन भाय । अब सुरेश परमेश श्रुति, करौ शीश निज नाय ।
चौपाई
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प्रभु इस जग समरथ ना कोय जामो तुम यश वर्णन होय । नार ज्ञानधारी मुनि थर्के, हमसे मन्द कहा कर सकें यह उर जानत निश्चय होन, जिन महिमा वर्णन हम कीन । पर तुम भक्ति थकी वाचाल. तिस वा होय कहूँ गुण माल ॥ जय तीर्थकर त्रिभुवन धनी, जय चन्द्रोपम चूडामणी जय जय परम धाम दातार, कमंकुलाचल चूरणहार | जय शिवकामिनि कन्त महन्त, अतुल अनन्त चतुष्टय वन्त । जय जय आशभरण बड़ भाग. तप लक्ष्मी के सुभंग सुहाय ॥ जय जय धर्मध्वजाधर धीर. स्वर्ग मोक्ष दाता वरवीर । जय रत्नत्रय रत्नकरण्ड, जय जिन तारण तरण तरण्ड ॥ जय जय समवशरण शृङ्गार, जय संशय वन दहून तुषार । जय जय निर्विकार निर्दोष, जय अनन्त गुण माणिक कोष ॥ जय जय ब्रह्मचर्यदल साज, काम सुभट विजयी भटराज । जय जय मोहमहातरु करी, जय जय मदकुञ्जर केहरी । क्रोधमहानल- मेघ प्रचण्ड, मान मोह घर दामिन दण्ड । माया बेल- धनञ्जय दाह. लोभ सलिल शोषण दिननाह ॥ तुम गुणसागर अगम अपार, ज्ञान जहाज न पहुँचे पार । लॅट ही तट पर डोले सोय, कारण सिद्ध यहा ही होय ॥ तुमरी कीर्तिबेल बहु बढ़ी, यत्न बिना जममण्डप चढी । अवर कृदेव सुयस निज चहैं, प्रभु अपने थल ही यश लहैं ॥