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जब शीतमास तुषारसो, दाहै सकल वनराय । जव जमै पानी पोखरां. थरहरे सबकी काय ॥ . . तब नगन निवसै चौहटै, अथवा नदी के तीर । ते साधु०॥७॥ करजोर 'भूधर' बीनवै, कब मिलहिं वे मुनिराज । यह आश मन की कब फल, मम सरहि सगरे काज ॥ ससार विषम विदेश मे, जे बिना कारण वीर । ते साधु०॥८॥
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अथ भूधरकृत दूसरी गुरु स्तुति
राग भरथरी-दोहा। ते गुरु मेरे मन बसो. जे भवजलधि जिहाज । ' ' . आप तिरहिं पर तारही, ऐसे श्रीऋषिराज ॥ ते गुरु० ॥ १ ॥ मोहमहारिपु जीतिक, छाड्यो सब घरबार । होय दिगम्बर वन बसे, आतम शुद्ध विचार ॥ ते गुरु० ॥ २ ॥ रोग उरग-विलवपु गिण्यो, भोग भुजंग समान । कदलोतरु ससार है, त्याग्यो सब यह जान ।। ते गुरु० ॥ ३ ॥ रत्नत्रयनिधि उर धरै, अरु निरग्रन्थ त्रिकाल । मार्यो कामखबीस को, स्वामी परम दयाल ॥ ते गुरु० ॥ ४ ॥ पञ्च महाव्रत आचर, पांचो समिति समेत । तीन गुपति पाल सदा, अजर अमर पदहेत ॥ ते गुरु० ॥ ५ ॥