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श्रीपाल को सागर विपै जव सेठ गिराया। उसकी रमा से रमने को आया था वेहया ।। उस वक्त के सङ्कट मे सती तुमको जो घ्याया। दुःख द्वन्दफन्द मेट के आनन्द बढाया । हे दीन० ॥ ६ ॥ हरिपेण की माता को जहाँ सौत सताया। रथ जैन का तेरा चले पीछे से बताया ।। उस वक्तके अनशन मे सती तुमको जो ध्याया। चक्रेश हो सुत उसके ने रथ जैन चलाया। हे दीन०॥७॥ सम्यक्त शुद्ध शीलवन्त चन्दना सती। जिसके नजीक लगती थी जाहर रती-रती ।। वेडी मे पड़ी थी तुम्हें जब ध्यावती हुती। तव वीर धीर ने हरी दुःख द्वन्द की गती । हे दीन० ॥ ८॥ जब अञ्जना सती को हुआ गर्भ उजारा । तव सास ने कलङ्क लगा घर से निकारा ।। चन वर्ग के उपसर्ग मे सती तुमको चितारा। प्रभु भक्त व्यक्त नानि के भय देव निवारा ॥ हे दीन० ॥६॥ सोमा से कहा जो तू सती शील विशाला। तो कुम्भत निकाल भला नाग जु काला ।। उस वक्त तुम्हें ध्याय सती हाथ जो डाला। तत्काल ही वह नाग हुआ फूल की माला ॥ हे दीन० ॥१०॥ जब राज रोग था हुआ श्रीपाल राज को। मैना सती तब आपकी पूजा इलाज को। तत्काल ही सुन्दर किया श्रीपालराज को। वह राज रोग भोग गया मुक्तिराज को ।। हे दीन० ॥ ११ ॥