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नहिं अनंभ जो होहिं तु. तुमसे तुम गुण वग्णन संत । जो अधनीको आप नमान, करन ना निहित धनवान ।। इकटक जन नुमको अपिलीय, अवरपिप गति कर न माय । को फार लो जलधि जल पान, सार नीर परि मतिमान ।। प्रभु तुम चीनगग गुन लीन, जिन परमानु देह तुम कीन । है तितने ही ते परमानु, यानें तुम मम पि न आनु । कह तम मुब सनुपम अधिकार, मुर-नर-नाग-नयन-मनहार । कहां पंद्र-मंटल सपनप, दिनमे टाक-पन सम रक ।। पूरन-नंद-ज्योति चवित, तुम गुन तीन जगत लंघेत । एक नाय विपन आधार, तिन विचारत को कर निवार । जो सुर-निय विभ्रम प्रारम्ग, मन न डिग्यो तुम तो न अचंभ। अचल चलाव प्रलय नमार, मेरु-शिसर डगमग न धीर ।। धृमरहित चानी गत नेह, परमार्श विमुपन-घर एह । वान-गम्य नाही परचंट, पर दीप तुम चलो अयंड ।। छिप न लपलु गाफी छांहिं. जग-पगकाग हो छिनमाहिं । घन अनपर्न दाह गिनिवार, रविन अधिक धरो गुणसार ।। सदा उदित विदलित मनमो', पिटिन नेह राह अविरोह । तुम मुस-यमल अपच रंद, जगत-पिकाशी जोति अमंद ।। निश-टिन शशिरनिको नदि काम, तुम मुम्ब-नंद हर तम-घाम । जो स्वभावतं उपजे नाज, मजल गेप तो फौनदु काज || जो नुवोध मोहे तुममाहि, हरि नर आदिकम सो नाहि ।। जो दुति महानतन में होय, कांच-संड पावै नहिं मोय ॥
सराग देव देस में भला विशेष मानिया। स्वरूप जाहि देस वीतराग तू पिलानिया ।।