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न राह
श्रीनत मानतुङ्ग मुनिवर पर, मृप लोप जब च्यिो गंवार । बन्द फियो नालों में दवही. भज्ञानर गुरु रच्गे उदार ॥ चरी प्रगट तब हेरे, न्यन नट छियो जयकार | नो० ॥ श्रीमत वादिरा नुनिबरने कयो कुष्टि भूपति न्हिं दार । श्रावक सेठ कहो विहं ना, मेरे गुरु कञ्चन तन्धार ॥ त्वहीं एकीभाव रच्यो गुट, नन मुरण दुदि भयो पार ॥ नो०६ ॥ श्रीनत मुद्रचन्द्र मुन्तिरने बाद पयो जहं नमा ननार । तब हो श्रीजयाग धाननि. श्रीगुरु रचन्न रची अपार ॥ तव प्रतिमा श्रीपश्वनाय की प्रकट नयी त्रिनुवन जयकार | सो० ७ ॥ श्रीनन भयचन गुरुनों जय. निडीपति इनि कही पुकार । के तुन नोहि निन्दायहु विगर के पन्रोन्त तार II व गुरु प्रकट ब्लानित अतिशयनुन्त हरयो नानो पदभार । सो गुदेव इन्गे र नेरे, विग्न हरण नगरतार || सो०८ ॥ दोहा-यित्न हरण नाल करण, वाचित वातार ।
'वृन्दावन कष्टक रच्यो, करो कण्ठ नुखकार ॥
गी-वाणो (डायरी) से . को स्वच्छ मन में नारे, उसे कहने में नहोत्र न्त करो।
चिो के राग-द्वेष मत करो। . राग-द्वेष के वेग में लाकर अन्यण प्रसार मत करो, वही
भारमा के सुधार की मुख्य शिना है।