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जन पूजा पाठसग्रह
अथ भूधरकृत गुरु स्तुति बन्दौ दिगम्बर गुरुचरण जग-तरण तारण जान । ने भरम भारी रोग को है, राजवैद्य महान ।। जिनके अनुग्रह बिन कभी नहिं, कट कर्म जजीर । ने साधु मेरे उर बसहु, मेरी हरहु पातक पीर ॥ १ ॥ यह तन अपावन अथिर है, ससार सकल असार । ये भोग विषपकवान से, इह भाति सोच विचार ॥ नप विरचि श्रीमुनि वन बसे, सब छाडि परिग्रह भीर । ते साधु०॥२॥ जे काच कञ्चनसम गिनहिं, अरि मित्र एक स्वरूप । निन्दा बडाई सारिखी, वनखण्ड शहर अनूप ॥ सुख दुःख जीवन मरन मे, नहिं खुशी नहि दिलगीर । ते साधु०॥३॥ जे वाह्य परवत वन बसै, गिरि गुफा महल मनोग। सिल सेज समता सहचरी, शशि किरन दीपक जोग ।। मृग मित्र भोजन तपमई, विज्ञान निरमल नीर । ते साधु०॥४॥ सूखहि सरोवर जल भरे, सूखहिं तरगिनि-तोय । बाटहि वटोही ना चलै, जहँ घाम गरमी होय ॥ तिहँकाल मुनिवर तपतपहिं, गिरि शिखर ठाडे धीर । ते साधु०॥५॥ घनघोर गरजहिं घनघटा, जलपरहिं पावसकाल । चहुँ ओर चमकहि बीजुरी, अति चलै सीरी व्याल ॥ तरुहेट तिष्ठहिं तब जती, एकान्त अचल शरीर । ते साधु०॥६॥