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चौबीसी है तीन तीन दशहीके माही ॥ दशो क्षेत्र के तीस, सात सौ बीस जिनेश्वर ।
अर्घलेय करजोर जजों 'रविमल' मन शुद्ध कर। ह रमनपी राक्षेत्र में विणे तीमचौधीमो के सातमो बीस जिनेन्दे भ्यो अप० ।
जयमाला। दोहा-चौबीसी तीसों तनी, पूजा परस रसाल। मन वच तनसा शुद्ध कर, अव वरणों जयमाल ।
पद्धडी छन्द । जय द्वीप अटाई में जु सार, गिरि पञ्चमेरु उन्नत अपार । ता गिरि पूरव पश्चिम जु और, शुभ क्षेत्र विदेह बसे ज ठौर ॥१॥ ता दक्षिण क्षेत्र भरत सुजान, है उत्तर ऐरावत महान । गिरि पांच तने दस क्षेत्र जोय, ताको वर्णन सुनि भव्य लोय ॥२॥ जो भरत तनी चरणन विशाल, तसो ही ऐरावत रसाल । इक क्षेत्र बीच विजयाद्ध एक, ता ऊपर विद्याधर अनेक ||शा इक क्षेत्र तने पट खण्ड जान, तहाँ छहों काल वरते समान । जो तीन काल में भोग भूमि, दश जाति कल्पतरु रहे झूमि ॥४॥ जब चौथो काल लग जु आय, तय कर्मभूमि वरते सु आय । जर तीर्थकरको जनम होय, सुर लेय जर्ज गिरि मेरु मोय ॥२॥ बहु भक्ति करें सब देव आय, ताई थई थई तान लाय। हरि ताडव नृत्य करे अपार, सब जीवन मन आनन्दकार ||६|| इत्यादि भक्ति करिके सुरिन्द, निज धान जाय युत देव वृन्द ।। या विधि पांचों कल्याण जोय, हरि भक्ति करे अति हर्प होय ॥७॥ या काल विप पुण्यवन्त जीव, नर जन्म धार शिव लहे अतीव । मर सठ पुरुप प्रवीण जोय, सब याही काल विप जु होय ॥८॥ जय पश्चम काल कर प्रवेश, मुनि धर्म तनों नहि रहे लेश।। विरले कोई दक्षिण देश माहि, जिनधर्मी जन बहुते जु नाहि ॥६॥