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पादाणुसारि-वरकुतुबुद्धि, उप्पण्णु जाह आयासरिद्धि । जे पाणाहारी तोरणीय, जे रुक्ख-मूल आतावणीय ॥३॥ जे मोणिधाय चन्दाहणीय, जे जत्थत्थ वणि णिवासणीय । जे पंच-महव्यय धरणधीर,जे समिदि-गुत्ति पालणहि वीर ॥४॥ जे वड्डहि देह विरत्तचित्त, जे राय-रोस-भय-मोह-चित्त । जे कुगइहि संवरु विगयलोह, जे दुरियविणासणकामकोह ॥शा जे जल्लमल्लतणगत्तलित्त, आरंभ-परिग्गह जे विरत्त । जे तिण्णकाल बाहर गमंति, छहम-दसमउ तउ चरंति।।६।। जे इकगास दुइगास लिंति, जे णीरस-भोयण रइ करंति । ते मुणिवर वंदउंठियमसाण. जे कम्म डहइ वर सुक्कझाण।।७। बारहविह संजम जे धगति, जे चारिउ विकहा परिहरंति । वावीस परीपह जे सहति, संसार-महण्णउ ते तरंति ॥८॥ जे धम्मबुद्धि महियलि थुणंति, जे काउस्सग्गे णिसिगमंति। जे मिद्धि-विलासणि अहिलसंति,जे पक्स-मास आहार लिति॥६॥ गोहण जे वीगसणीय, जे धणुह-सेज-वजासणीय । जे तव-बलेण आयास अंति,जे गिरि-गुह-कंदर-विवर थति॥१०॥ जे सत्तु-मित्त ममभाव चित्त, ते मुणिवर बंदउ दिढ-चरित्त । चउवीसह गंथह जे विरत्त, ते मुणिवर बंदउ जग-पवित्त ॥११॥ जे सुज्झाणिज्झा एकचित्त, वंदामि महारिसि मोक्खपत्त । रयण-तय रंजिय सुद्ध-भाव, ते मुणिवर वंदउ ठिदि-सहाव ।।१२।। जे तप-सुरा संजम-धीरा सिद्ध-वधू अणुराईया। रयण-त्तय रंजिय कम्मह-गंजिय ते ऋसिवर मय झाईया॥१३॥ [ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनशानचारित्रादिगुणविराजमानाचार्यो
पाध्यायसर्वसाधुभ्यो महाघे निर्वपामीति स्वाहा ।]
घत्ता