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जैन पूजा पाठ सग्रह
छन्द रूपक सवैयां शान्तिनाथ-जिनके पद-पंकज, जो भवि पूजै मन वच काय । बनम जनमके पातक ताके, ततछिन तजिकै जाय पलाय ॥ मनवांछित सुख पावै सो नर, वांचें भगति-भाव अति लाय। ताते 'वृन्दावन' नित बंदै, जाते शिवपुर-राज कराय ॥१॥
इत्याशीर्वाद. पुष्पाजलि क्षिपामि।
रत्नत्रय
- यदि रत्नत्रय की कुशलता हो जावे तब यह सब व्यवहार अनायास
छट जावे। - जो जीव दर्शन, ज्ञान, चारित्र में स्थित हो रहा है उसी को तुम
'स्व - समय' जानो और इसके विपरीत जो पुद्गल कर्म प्रदेशों में स्थित है उसे 'पर - समय' जानो। जिसके ये अवस्थायें हैं उसे
अनादि, अनन्त, सामान्य जीव समझो। केवल राग - द्वेष की निवृत्ति के अर्थ चारित्र की उपयोगिता है। सम्यकदृष्टि जोव का अभिप्राय इतना निर्मल है कि वह अपराधी जीव का अभिप्राय से बुरा नहीं चाहता। उसके उपभोग क्रिया होती है। इसका कारण यह है कि चारित्र मोह के उदय से बलात् उसे उपभोग क्रिया करनी पड़ती है। एतावता उसके विरागता नहीं है, ऐसा नहीं कह सकते।
-'वर्णी वाणी' से