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'जैन पूजा - काव्य' रूप आविष्कार की जननी हैं
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मानव-जीवन के योग्य द्रव्य क्षेत्र काल-भाव एवं विविध राष्ट्रीय परिस्थितियों को बोग्य बनाने के लिए अशान्ति, असत्य, हिंसा, तृष्णा, क्रोध आदि अन्तरंग शत्रुओं का शमन करने के लिए अथवा सुसंस्कृत जीवन के विकास हेतु परमात्मा परमेष्ठी परमदेवों की उपासना, स्तुति, प्रणति आदि करना मानव मात्र को अति आवश्यक हैं। यही आवश्यकता 'जैन पूजा- काव्य' रूप आविष्कार की जननी है। जिसका विस्तृत विवेचन इस अध्याय में प्रस्तुत है ।
उद्देश्य
लोक में प्रत्येक साध्य का उद्देश्य होना आवश्यक है। उद्देश्य को हृदय में धारण करके हो मानव कार्य करने में उद्यमी होता है, ऐसा लोक में देखा भी जाता हैं । एवं लोकोक्ति प्रसिद्ध हैं- 'प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोऽपि न प्रवर्तते ।
इसका भाव यह है कि बिना प्रयोजन के मूर्खजन भी किसी भी कार्य में प्रवृत्ति नहीं करता | जैन पूजा काव्य एक महान् साध्य है इसलिए इसका उद्देश्य भी महान् हैं । उद्देश्य को निश्चित करके ही अरिहन्त सिद्ध परात्मा की उपासना करना प्रत्येक मानव का कर्तव्य है ।
उद्देश्य सात प्रकार के हैं निर्विघ्न इष्ट सिद्धि, शिष्टाचार पालन, नास्तिकत्ता परिहार, मानसिक शुद्धि, श्रेयोमार्ग सिद्धि, तद्गुणलब्धि और कृतज्ञताप्रकाशन 1 नास्तिकत्वपरीहारः शिष्टाचार - प्रपालनम् ।
पुण्यावाप्तिश्च निर्विघ्नं शास्त्रादावाप्तसंस्तवात्॥'
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(1) निर्विघ्न इष्ट सिद्धि - अपने तथा दूसरे व्यक्ति के उपकार के लिए यथायोग्य धर्म, अर्थ तथा काम पुरुषार्थ की सिद्धि होना ।
(2) शिष्टाचार पालन - लांक में शिष्ट एवं शिक्षित मानवों की यह परम्परा कि ये प्रातः सायं परमात्मा का दर्शन, पूजन, कीर्तन करते हैं तथा प्रत्येक कार्य के प्रारम्भ में पूज्य इष्ट देव का स्मरण करते हैं और उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं।
( 3 ) नास्तिकता परिहार- जो मानव परमात्मा की दैनिक भक्ति-अर्चा या उपासना करता है उससे यह सिद्ध होता है कि भक्ति करनेवाला पुरुष आत्मा, परमात्मा, लोक परलोक, स्वर्ग, नरक, शास्त्र, गुरु आदि तत्त्वों पर श्रद्धा रखता है बह 'नास्तिक' नहीं, प्रत्युत 'आस्तिक' है। सम्यक् दृष्टि पुरुष का आस्तिक्च यह लक्षण भी धर्मग्रन्थों में कहा गया है
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1. न्यायदीपिका सं. डॉ. घरवारी लाल कोठिया, बीरसंघा मन्दिर 21 दरियागंज देहली : सन् 1968, प्र. 135 (हिन्दी अनुवाद)
जैन पूजा काव्य का उद्भव और विकास : 21