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जब यह मानव पूर्वजन्मकृत अथवा वर्तमान कृत स्वकीय कर्मों के प्रभाव से हिंसा, तृष्णा, मद, असत्य, राग, मोह, द्वेष आदि विकारभावों को अपनाता है और उनके दुःखप्रद फलों का अनुभव करता है तब यह मानव आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सारण, शत, संयम, परंपकार आदि श्रेष्ठ गुणों को विस्मृत कर देता है और गुणवानों के उपदेश, संगति, विनय, श्रद्धा, सत्य आदि गुणों को भी तिरस्कृत कर देता है। फलतः वह व्यक्ति गुणों को प्राप्त करने के लिए कभी भी परमात्मा की भक्ति, शिक्षित गुणी सन्तों की संगति और अच्छे कर्तव्य के बिना कोई भी मानव अपने ज्ञान आदि गुणों का विकास नहीं कर सकता। नीति भी है
गुणा गुणज्ञेषु गुणाः भवन्ति, ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः ।
आस्वाधतोयाः प्रवहन्ति नयः, समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेयाः। गुणी सन्तों की संगति से मानब गुणी हो जाता है और स्वकीय गुणों की सुरक्षा करता है तथा व्यसनी, अज्ञानी, हिंसक पुरुषों की संगति या उपासना करने से मानव दोषी दुराचारी बन जाता है, जैसे कि सरिता का जल स्वभाव से मधुर हितकारी होता है परन्तु क्षार जलपूर्ण सागर की संगति से वह मधुर जल भी अपेय हो जाता है।
इसलिए मानव को जीवन में परमात्मा तीर्थकर की भक्ति और यथार्थ गुरु महात्मा गुणी सन्तों की संगति करना आवश्यक है। इस उपासना से ज्ञान सदाचार आदि गुणों का विकास और दुर्गुणों का निराकरण नियमतः हो जाता है। नीतिज्ञ विद्वानों का एक महत्वपूर्ण श्लोक यह भी जागृति को प्रदान करता है
हीयते हि मतिस्तात! होनैः सह समागमात ।
समैश्च समतामेति, विशिष्टैश्च विशिष्टताम्॥' गुणहीन मूर्ख पुरुष की संगति से मनुष्य की बुद्धि घट जाती है। समान पुरुषों की संगति से बुद्धि समान और महापुरुषों अथवा परमात्मा की सन्निधि से मानव की बुद्धि या ज्ञान महान् हो जाता है।
अतएव मानव को महागुणी बनने के लिए पूज्य परमात्मा की भक्ति, आचार्य, उपाध्याय, गुरुजनों की संगति करने को सदैव आवश्यकता होती है, यही आवश्यकता 'जैन पूजा-काध्य' रूप आविष्कार की जननी है।
व्यापार, कृषि, भोजन, शिल्प आदि लोकिक कार्यों से उत्पन्न दोषों या भ्रष्टाचार आदि दुष्कर्मों को दूर करने के लिए मानव को परमात्मा या वीतरागदेव की पूजा, तुति तथा गुणकीर्तन आदि कर्तव्यों की आवश्यकता है। यही आवश्यकता
1. हितोपदेश मित्रलाप : सं. विश्वनाथ झा : मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1964, पृ. 22. 2. नीतिसंग्रह : सं. गौरीनाथ पाठक : मानव मन्दिर मुद्रणालय, वाराणसी, पृ. 15 . 1982.
20 :: जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन