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प्रथम अध्याय
जैन पूजा-काव्य का उद्भव और विकास
आवश्यकता आधिकार की जानी किसी भी मानव को मिथ्याविचार और दुराचरण के साथ सन्देह के झूले में झूलने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु उसको अपने पुरुषार्थ से आत्मशुद्धि के लिए यथार्थ विश्वास, सत्यार्थज्ञान एवं पवित्र आचरण को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। प्रत्येक पानव को यह हितकारी पुरुषार्थ करने की इस कारण आवश्यकता होती है कि जीवन में इस प्राणी की प्रवृत्ति, अपने पूर्वकृत कर्म-परम्परा के अनुरूप सुख-दुःख विशिष्ट फलानुभव में होती है तथा हित-अहित रूप कार्य में संलग्न होती है।
उसी सुखदुखरूप कर्मफलानुभव को, दशवीं शती के आचार्य अमृतचन्द्र ने स्पष्टतया घोषित किया है :
परिणममानो नित्यं, ज्ञानविवतैरनादिसन्तत्या।
परिणामानां स्वेषां, स भवति कर्ता च भोक्ता च॥ तात्पर्य-यह संसारी प्राणी, चिरकाल से निरन्तर मोह, राग, द्वेष, मान, माया, लोभ आदि विकारों से लिप्त होता हुआ, अपने पुण्य या पाप रूप परिणामों का स्वयं ही कर्ता है और स्वयं ही उन कर्मों के फलों का भोक्ता है। सारांश यह है कि यह प्राणी अपने शुभ-अशुभ कर्मों का तथा उनके अनुरूप फल भोगने का स्वयं विधाता है।
1. "शुभः पुण्यायाशुभः पापस्व'
आचायं उमास्वामी : तत्त्वार्थ सूत्र : ज., सू. ई. सं. पं. मोहनलाल शास्त्री : जबलपुर 2. 'स्वयंकृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुमम् ।
परेण दनं यदि तभ्यो साट, स्वयं कृतं कर्म निरर्थक तला।' ___आ. अमितगतिः सामायिक पाठः पद्य 50, पृ. 30. सं. डॉ. मागचन्द्र जैन 'भागन्दु' : दमोह : 1114 1. आ. अमृतचन्द : पुरुषार्थसिद्ध्युपायः परमधुतप्रभावक पण्डा , अपास : 1977 : पद्य 10
जैन पूजा-कान्य का उद्भव और विकास :: 1:।