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रहते थे।
आचारांग का नवम अध्याय ही नहीं, समूचा आचारांग सूत्र ध्यान व अप्रमत्तता के बारे में है और बौद्ध धर्म की विपश्यना और जैन धर्म के ध्यान में साम्यता के बाबत उद्धरण सहित "जिनवाणी" व "स्वाध्याय संदेश " में लेखक ने प्रस्तुत किया है । गहन अध्ययन से स्पष्ट होगा कि आचारांग में ध्यान के बाबत जितना लेखन है वह किसी अन्य आगम में नहीं है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि इसकी गहराई में हम जा न सके और उत्तरकाल में योग दर्शन से प्रभावित हो नई ध्यान शैली का विकास किया और आचारांग के सूत्रों को भूल गये। मैं महासतीजी के लेखन से और अधिक सहमत नहीं हो सकता जब उन्होंने यह लिखा कि 'आचारांग जैसे प्राचीन स्तर के आगामों में आत्मसजगता या साक्षी भाव की जिस ध्यान विधि के संकेत उपलब्ध होते हैं वह ध्यान विधि कालक्रम में विस्मृत होती गई और मुख्य रूप से चित्त की एकाग्रता को ही आधार बनाकर ध्यानविधि का विकास किया गया ।" यह बात तत्वार्थसूत्र में दी गई ध्यान की परिभाषा व उसके भेद, लक्षण, आलम्बन आदि के विवेचन से स्पष्ट है । आगमोत्तर काल में विविध आचार्यों द्वारा विकसित ध्यान पद्धतियों पर पातंजलि के योग दर्शन व तान्त्रिक साधना विधियों का प्रभाव रहता है ।
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"महावीर से महाप्रज्ञ तक" के साहित्य का अध्ययन, शोधन व समालोचन कर महासतीजी ने न केवल अपनी अध्यवसायिता व कठिन परिश्रम का परिचय दिया है, अपनी अन्तर्दृष्टि व गहन अन्वेषण का भी परिचय दिया है । बुद्ध धर्म व वैदिक धर्म का तुलनात्मक अध्ययन कर विशाल दृष्टि का भी परिचय दिया है। ध्यान किसी एक सम्प्रदाय की बपौती नहीं है। ध्यान के द्वारा कोई भी आत्मोपलब्धि, सजगता, समता, सहिष्णुता, करुणा, मुदिता आदि गुणों की प्राप्ति कर प्रज्ञा, समाधि व वीतरागता प्राप्त कर सकता है। ध्यान पद्धति के विकास में जैन, बुद्ध एवं योग दर्शन का योगदान रहा है और ध्यान पूरी भारतीय संस्कृति की थाती बन गया है । महासतीजी भाग्यशाली हैं कि उन्हें आध्यात्मयोगिनी आर्या उमरावकुंवरजी महाराज की नेश्राय में अध्ययन व शोध करने का अवसर मिला इसलिए उन्हें अलौकिक मार्गदर्शन मिला और अनुपम कृति समाज की सेवा में समर्पित की। उनका अनेकानेक साधुवाद |
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