Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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निश्चय और व्यवहार नयों की पृष्ठभूमि । ५
सिद्ध होता है। इन वचनों से निश्चय और व्यवहारनयों की प्रमाणैकदेशता का समर्थन होता है।
___ स्याद्वादमञ्जरीकार ने अन्य के लिए अन्य के नाम का प्रयोग करने को अर्थात् उपचारात्मक असद्भूतव्यवहारनय को भी प्रमाणैकदेश बतलाया है, क्योंकि उपचारात्मक असद्भूतव्यवहारनय साधर्म्यादि सम्बन्ध से मुख्य अर्थ का ही द्योतन करता है।'
आचार्य जयसेन लोकव्यवहार अर्थात् असद्भूतव्यवहारनय की कथंचित् प्रामाणिकता का प्रतिपादन करने के लिये जैनों और बौद्धों के द्वारा मान्य व्यवहारनयों का भेद बतलाते हैं। वे कहते हैं - यद्यपि जैनों के समान बौद्ध भी बुद्ध को व्यवहारनय से सर्वज्ञ मानते हैं, तथापि बौद्धों के मत में व्यवहारनय जैसे निश्चयनय की अपेक्षा असत्य होता है वैसे ही व्यवहाररूप से भी असत्य होता है। किन्तु, जैनमत में व्यवहारनय यद्यपि निश्चय की अपेक्षा असत्य होता है, तथापि व्यवहाररूप से सत्य होता है। यदि वह लोकव्यवहार-रूप से भी सत्य न हो तो समस्त लोकव्यवहार मिथ्या ठहरेगा। इससे लोकव्यवहार को सर्वथा असत्य मानने का अतिप्रसंगदोष उपस्थित होगा।"३
ये समस्त आर्षवचन निश्चय और व्यवहार नयों की प्रमाणैकदेशता की पुष्टि करते हैं।
सत्य के दो रूप यतः निश्चय और व्यवहार दोनों नय प्रमाणैकदेश हैं इसलिए उनके द्वारा अधिगत पदार्थ सत्य होता है। निश्चयनय द्वारा गृहीत पदार्थ तो सत्य होता ही है, व्यवहारनय द्वारा ज्ञात पदार्थ भी सत्य होता है। किन्तु सत्य के रूपों में अन्तर
१. “तथात्मनोऽनादिबद्धस्पृष्टत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां बद्धस्पृष्टत्वं भूतार्थमप्येकान्ततः पुद्गलास्पृश्यमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्।”
__ समयसार/आत्मख्याति, गाथा १४ २. “लौकिकानामपि घटाकाशं पटाकाशमिति व्यवहारप्रसिद्धराकाशस्य नित्यानित्यत्वम्।"
न चायमौपचारिकत्वादप्रमाणमेव। उपचारस्यापि किञ्चित् साधर्म्यद्वारेण मुख्यार्थस्पर्शित्वात्।” स्याद्वादमञ्जरी, ५/२६ "ननु सौगतोऽपि ब्रूते व्यवहारेण सर्वज्ञः, तस्य किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति ? तत्र परिहारमाह सौगतादिमते यथा निश्चयापेक्षया व्यवहारो मृषा, तथा व्यवहाररूपेणापि व्यवहारो न सत्य इति। जैनमते पुनर्व्यवहारनयो यद्यपि निश्चयापेक्षया मृषा तथापि व्यवहाररूपेण सत्य इति। यदि पुनर्लोकव्यवहाररूपेणापि सत्यो न भवति तर्हि सर्वोऽपि लोकव्यवहारो मिथ्या भवति, तथा सत्यतिप्रसङ्गः।"
समयसार/तात्पर्यवृत्ति, गाथा ३५६-३६५ ३. ( क ) “उभावप्येतौ स्तः शुद्धाशुद्धत्वेनोभयथा द्रव्यस्य प्रतीयमानत्वात्।"
प्रवचनसार/तत्त्वदीपिका, २/९७
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