Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 162
________________ १३४ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन गुणी के अभेद का अवलम्बन करनेवाले नय को शुद्धनिश्चयनय कहा है।' यहाँ 'निरुपाधि' शब्द से 'क्षीणोपाधि' अर्थ अभिप्रेत है, क्योंकि कर्मोपाधि का क्षय होने पर ही जीव के केवलज्ञानादि स्वभाव प्रकट होते हैं तथा मुक्तावस्था में जीव का अनन्तज्ञान, अनन्तसुख आदि शुद्धभावों का कर्तृत्व भी इसी क्षीणोपाधिमूलक शुद्धनिश्चयनय से ही उपपन्न होता है। उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय के भेद उपचारमूलक असद्भूतव्यवहारनय को आलापपद्धतिकार ने दो भेदों में विभाजित किया है - अनुपचरित एवं उपचरित। संसारी जीव के साथ शरीर और पुद्गल-कर्म संश्लिष्ट होते हैं। अत: जिनेन्द्रदेव ने इनमें और जीव में परस्पर स्वस्वामित्वादि सम्बन्धों का उपचार किया है। इस उपचार का अवलम्बन कर जीव के विषय में परामर्श करनेवाली दृष्टि को आलापपद्धतिकार ने अनुपचरित असद्भूतव्यवहारनय संज्ञा दी है। उदाहरणार्थ - "संश्लेषसहितवस्तुसम्बन्धविषयोऽनुपचरितासद्भूतव्यवहारो यथा जीवस्य शरीरमिति।" - जिस शरीरादि परद्रव्य का जीव से संश्लेष है उसके साथ जीव के ( स्वस्वामित्वादि ) सम्बन्ध का उपचार करनेवाली ( तथा किये गए उपचार के निमित्त एवं प्रयोजन को देखनेवाली ) दृष्टि का नाम अनुपचरित असद्भूतव्यवहारनय है। जैसे 'यह जीव का शरीर है' इस कथन में जीवसंश्लिष्ट शरीर और जीव में स्वस्वामिसम्बन्ध का उपचार किया गया है, अत: यह अनुपचरित असद्भूतव्यवहारनय से किये गए परामर्श का उदाहरण है। यद्यपि यह दृष्टि उपचारमूलक है, तथापि उपचार का विषय जीव से संश्लिष्ट पदार्थ है, न कि असंश्लिष्ट, इसलिये इसे अनुपचरित कहा गया है तथा परिवारजन एवं धनसम्पत्ति जीव से असंश्लिष्ट होते हैं इसलिये इनमें और जीव में स्वस्वामित्वादि सम्बन्धों का उपचार करनेवाली तथा किये गए उपचार के निमित्त १. “तत्र निरुपाधिकगुणगुण्यभेदविषयकः शुद्धनिश्चयो यथा केवलज्ञानादयो जीव इति।' आलापपद्धति/सूत्र, २१८ २. "शुभाशुभयोगत्रयव्यापाररहितेन शुद्धबुद्धैकस्वभावेन यदा परिणमति तदानन्तज्ञान__ सुखादिशुद्धभावानां छद्मस्थावस्थायां भावनारूपेण विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयेन कर्ता, मुक्तावस्थायां तु शुद्धनयेनेति।" बृहद्र्व्यसंग्रह/ब्रह्मदेवटीका/गाथा ८ ३. “असद्भूतव्यवहारो द्विविध: उपचरितानुपचरितभेदात्।" आलापपद्धति/सूत्र २२६ ४. वही/सूत्र २२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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