Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्गों में साध्य-साधकभाव / १५३
निश्चयरत्नत्रय को पुण्यपाप दोनों के संवर का कारण कहा है।' मोक्खपाहुड के हिन्दी टीकाकार पंडित जयचन्द जी लिखते हैं -
“चारित्र निश्चय-व्यवहारकरि दो भेदरूप है। तहाँ महाव्रत, समिति, गुप्ति के भेद करि कह्या है सो तो व्यवहार है। तिनि में प्रवृत्तिरूप क्रिया है सो शुभबन्ध करै है और इन क्रियानि में जेता अंश निवृत्ति का है ताका फल बन्ध नाहीं है। ताका फल कर्म की एकदेश निर्जरा है और सब कर्म तैं रहित अपना आत्म-स्वरूप में लीन होना सो निश्चयचारित्र है, ताका फल कर्म का नाश ही है।"२
पंडित बनारसीदास जी का कथन है – “जीवद्रव्य में कषाय की मन्दता होती है, उससे निर्जरा होती है। उसी मन्दता के प्रमाण में शुद्धता जानना।"३
तात्पर्य यह है कि मिथ्यात्व और कषायों का क्षयोपशम होने पर आत्मस्वभाव ( वीतरागभाव ) की अंशत: अभिव्यक्ति होती है, वही एकदेशशुद्धभाव है। अत: सम्यग्दृष्टि जीव के अशुभनिवृत्ति और शुभप्रवृत्तिरूप व्यवहारमोक्षमार्ग में एकदेशशुद्धभाव होता है, उससे वह यथासम्भव कर्मों का संवर और निर्जरा करता हुआ अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों के क्षयोपशम द्वारा षष्ठ गुणस्थान तक पहुँच जाता है, जहाँ शुद्धोपयोगरूप निश्चयमोक्षमार्ग को पकड़ना सम्भव होता है। लक्ष्य की भिन्नता से शुभोपयोग के फल में भिन्नता
। यद्यपि अनेक जीव ऐसे हैं जो महाव्रतादिरूप शुभोपयोग का अवलम्बन करते हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि होने के कारण मोक्षमार्ग में एक कदम भी नहीं रख पाते। इससे यह शंका हो सकती है कि व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्ग तक ले जाने में समर्थ नहीं हैं। किन्तु यह दोष व्यवहारमोक्षमार्ग या शुभोपयोग का नहीं है, उसके पीछे जो लक्ष्य होता है उसका है। आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है -
“जैसे एक ही प्रकार के बीज भिन्न-भिन्न भूमियों में बोये जाने पर भिन्न-भिन्न रूप में फलित होते हैं वैसे ही एक ही शुभोपयोग अलग-अलग पात्रों के संसर्ग से अलग-अलग फल देता है।"
इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन कहते हैं – “जब सम्यक्त्वपूर्वक १. “तत्र निश्चयरत्नत्रयसाधकव्यवहारत्नत्रयरूपस्य शुभोपयोगस्य प्रतिपादकानि यानि वाक्यानि तानि पापास्त्रवसंवरकारणनि ज्ञातव्यानि।"
- बृहद्र्व्यसंग्रह/ब्रह्मदेवटीका/गाथा ३५ २. मोक्खपाहुड/टीका/गाथा ४२ ( जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश २/२९३ ) ३. उपादाननिमित्त की चिट्ठी। मोक्षमार्गप्रकाशक/परिशिष्ट, पृ० १९ ४. रागो पसत्थभूदो वत्थुविसेसेण फलदि विवरीदं ।
णाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि ।। प्रवचनसार ३/५५
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