Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 236
________________ २०८ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन निश्चय-व्यवहार के एकान्त अवलम्बन का निषेध मोक्षसाधना की अनेकान्तात्मकता का अत्यन्त स्पष्ट प्रमाण यह है कि आगम में निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्गों के एकान्त अवलम्बन का निषेध किया गया है और उनके परस्परसापेक्ष अर्थात् अनेकान्तात्मक अवलम्बन से ही मोक्ष की सिद्धि बतलाई गई है। यह आचार्य अमृतचन्द्र के निम्नलिखित निरूपण पर ध्यान देने से स्पष्ट हो जाता है - “वीतरागभाव ही साक्षात् मोक्ष का हेतु है। वह निश्चय और व्यवहार का अविरोधकपूर्वक ( दोनों का आवश्यकतानुसार ) आश्रय लेने से ही सिद्ध होता है। उदाहरणार्थ, प्राथमिक जनों की बुद्धि में धर्म का स्थूल ( बाह्य ) रूप ही समझ में आता है और उसी के द्वारा उनकी धर्ममार्ग में प्रवृत्ति सम्भव होती है। अत: उनके लिए व्यवहारनयात्मक भिन्नसाध्य-साधनभाव' ( स्वात्मा से भिन्न जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान-ज्ञान एवं व्रतादि साधना ) का आश्रय लेकर मोक्षमार्ग में अवतरित होना सुकर होता है। जैसे यह श्रद्धेय है, यह अश्रद्धेय है; यह श्रद्धान कहलाता है, यह अश्रद्धान; इसे ज्ञान कहते हैं, इसे अज्ञान; यह आचरणीय है, यह अनाचरणीय; यह चारित्र है, यह अचारित्र - इस रूप में जब वे कर्त्तव्य-अकर्तव्य, कारण-कार्य आदि का भेद जान लेते हैं, तब उनमें मोक्ष का उत्साह उत्पन्न होता है और व्यवहारनयात्मक साधना ( जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान-ज्ञान एवं व्रतादि साधना ) द्वारा धीरे-धीरे मोहरूपी मल्ल का उन्मूलन करते हैं। जब कभी अज्ञानजन्य प्रमाद के वशीभूत होकर आत्मधर्म शिथिल हो जाता है, तो अपने को सन्मार्ग पर लाने के लिए कठोर दण्डनीति अपनाते हैं। दोष के अनुसार बार-बार प्रायश्चित्त करते हैं और सतत उद्यमशील रहकर आत्मभिन्न जीवादि तत्त्वों के श्रद्धान, ज्ञान एवं व्रतादि क्रियाओं द्वारा आत्मा का संस्कार करते हुए उसमें थोड़ी-थोड़ी विशुद्धि लाते हैं, जैसे रजक मैले वस्त्र को शिलातल पर पछाड़कर तथा विमल जल में धोकर भित्रसाध्य-साधनभाव द्वारा शुद्ध करता है।" १. साध्य और साधन का भिन्न-भिन्न होना भिन्न साध्य-साधनभाव कहलाता है। दोनों का अभिन्न होना अभिन्न साध्य-साधनभाव कहलाता है। २. (क) ".... साक्षान्मोक्षकारणभूतपरमवीतरागत्वविश्रान्तसमस्तहृदयस्य । तदिदं वीतरागत्वं व्यवहारनिश्चयाविरोधेनैवानुगम्यमानं भवति समीहितसिद्धये, न पुनरन्यथा। व्यवहारनयेन भिन्नसाध्य-साधनभावमवलम्ब्यानादिभेदवासितबुद्धयः. सुखेनैवावतरन्ति तीर्थं प्राथमिकाः।" पञ्चास्तिकाय/तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति, १७२ (ख) मोक्षमार्गप्रकाशक/आठवाँ अधिकार/पृ० २७७-२७८ ३. “.... तस्यैवात्मनो भित्रविषय-श्रद्धानज्ञानचारित्रैरधिरोप्यमाणसंस्कारस्य भिन्नसाध्य साधनभावस्य रजकशिलातल-स्फाल्यमान-विमलसलिलाप्लुत-विहिताध्व-परिष्वङ्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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