Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 279
________________ निश्चयाभास एवं व्यवहाराभास । २५१ जोण्हाणं णिरवेक्खं सागारणगारचरियजुत्ताणं । अणुकंपयोवयारं कुव्वदु लेवो जदि वि अप्पो ।।' - जैन मुनियों और श्रावकों की निष्कामभाव से सेवा करने पर यद्यपि किंचित् पुण्यबन्ध होता है, तथापि करनी चाहिए। इस गाथा में भी आचार्य कुन्दकुन्द ने शुभप्रवृत्ति की कथंचित् हेयरूपता तथा कथंचित् उपादेयरूपता दोनों का वर्णन किया है। निम्नलिखित कथन में आचार्य जयसेन ने शुभोपयोग की पुण्यबन्धहेतुता . का प्रतिपादन करते समय उसकी पारम्परिक मोक्षहेतुता पर भी प्रकाश डाला है - ___“यदा .... सम्यक्त्वपूर्वकः शुभोपयोगो भवति तदा मुख्यवृत्यां पुण्बन्धो भवति परम्परया निर्वाणं च, नो चेत् पुण्यबन्धमात्रमेव।।"२ - जब सम्यग्दर्शनपूर्वक शुभोपयोग होता है, तब मुख्यरूप से पुण्यबन्ध होता है और परम्परया निर्वाण, अन्यथा मात्र पुण्बन्ध होता है। इस प्रकार आचार्यों ने श्रोताओं को एकान्तवाद से बचाने के लिए अपने प्रवचन को सदा नयान्तरसापेक्ष बनाया है। एकान्तप्रवचन से श्रोता न केवल एकान्तवादी बनता है, अपितु साधना में भी विफल होता है। साधना साधक की क्षमता पर निर्भर होती है। अतः क्षमतानुकूल साधनाक्रम का ही मुख्यरूप से उपदेश दिया जाना चाहिए। सम्यग्दर्शन के लिए तो प्रत्येक मुमुक्षु को निश्चय और व्यवहार उभयनयसम्मत परिपूर्ण उपदेश आवश्यक है, किन्तु साधना के लिए साधक की क्षमता के अनुसार निश्चयप्रधान अथवा व्यवहारप्रधान उपदेश आवश्यक है। सम्यग्दर्शन होने के बाद भी साधक उतने ही संयम में समर्थ होता है, जितना उसकी क्षमता के अनुरूप होता है। इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार की बारहवीं गाथा में कहा है कि उच्च भूमिका में पहुँचे साधकों को निश्चयप्रधान उपदेश का अनुसरण करना चाहिए तथा प्राथमिक भूमिका में स्थित साधक व्यवहारप्रधान उपदेश के पात्र हैं। पंडित टोडरमल जी ने भी मोक्षमार्गप्रकाशक के आठवें अधिकार में पात्र' की योग्यता के अनुसार व्यवहारात्मक तथा निश्चयसहित-व्यवहारात्मक इन दो प्रकार की साधना-पद्धतियों को उपदेश के योग्य बतलाया है। किन्तु कुछ आधुनिक अध्येता यह प्रतिपादित करते हैं कि 'जो मोक्षमार्ग पर आरूढ़ होना चाहता है उसे मुख्यता से स्वभाव का आश्रय लेने का ही उपदेश १. प्रवचनसार ३/५१ २. वही/तात्पर्यवृत्ति ३/५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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