Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 278
________________ २५० / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन ___ “आज बड़े-बड़े विद्वान् भी परस्पर आक्षेप कर एक-दूसरे का विरोध करने में ही अपना समय व जीवन बर्बाद कर रहे हैं। एक केवल उपादान-उपादान की रट लगा रहा है, तो दूसरा केवल नैमित्तिक भावों या निमित्तों की। एक ज्ञानमात्र की महिमा का बखान करके केवल जानने-जानने की बात पर जोर लगा रहा है और दूसरा केवल व्रतादि बाह्यचारित्र धारण करने की बात पर। .... कितना अच्छा होता, यदि दोनों विरोधी बातों को अपने वक्तव्य में यथास्थान अवकाश दिया जाता।" अनेकान्त तत्त्व का प्रवचन मुख्यगौण-भाव से होता है। एक बार में तत्त्व के एक ही पक्ष का कथन सम्भव है। अत: यह अत्यन्त आवश्यक है कि वस्तु के जिस धर्म को कथन में प्रमुखता दी जा रही है, उसके विषय में यह बतला दिया जाय कि यह धर्म इस विशेष अपेक्षा से ही वस्तु में है, सर्वथा नहीं। साथ ही अपेक्षा-विशेष से प्रतिपक्षी धर्म के अस्तित्व की सूचना भी दे दी जाय। इससे एकान्त दृष्टिकोण का निर्माण न होगा। प्रतिपक्षी धर्म की सूचना उसी समय देना आवश्यक है, अन्यथा श्रोता के मस्तिष्क में वस्तु का अनेकान्त चित्र निर्मित न होगा तथा यह सम्भव है कि श्रोता को आगे प्रवचन सुनने का अवसर न मिले, जिससे वह प्रतिपक्षी धर्म को जानने से अनिश्चित काल के लिए वंचित हो जाये। इससे उसके मस्तिष्क में वस्तु का अनेकान्त चित्र कभी न बन पायेगा और उसके विषय में उसकी सदा के लिए एकान्त धारणा बन जायेगी। अत: प्रवचनकर्ता को अपना कथन प्रमाणसापेक्ष और नयान्तरसापेक्ष बनाना अत्यन्त आवश्यक है। क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी ने इसे अत्यन्त आवश्यक बतलाते हुए उपदेश को किस प्रकार सापेक्ष बनाया जा सकता है, इसका सुन्दर निरूपण अपने ग्रन्थ नयदर्पण में किया है।' प्राचीन आचार्यों ने इस तथ्य का पूर्णरूपेण ध्यान रखा है। श्रोता एकान्त को ग्रहण न कर ले, इस विचार से वे एक पक्ष का निरूपण करते समय प्रतिपक्ष का स्पष्टीकरण भी साथ में करते गए हैं। यह निम्नलिखित उद्धरणों से जाना जा सकता है - सुद्धा सुद्धादेसो णायव्वो परमभावदरसीहिं । ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे ।।' इस गाथा में आचार्य कुन्दकुन्द ने अपेक्षाभेद से निश्चय और व्यवहार दोनों नयों की उपादेयता का निरूपण किया है। १. नयदर्पण/पृ० ३३-३४ २. वही/पृष्ठ १७६-१७९ ३. समयसार/गाथा १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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