Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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२१२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
और स्यात् पद का अर्थ ‘कथंचित्' है। इसलिए जो उपदेश दिया गया हो उसे सर्वथा नहीं जान लेना चाहिए। उपदेश के अर्थ को जानकर यह विचार करना चाहिए कि यह उपदेश किस प्रकार है, किस प्रयोजनसहित है, किस जीव को कार्यकारी है ? यह सब विचार करके उसका यथार्थ अर्थ ग्रहण किया जाय, पश्चात अपनी दशा देखकर जो उपदेश जिस प्रकार अपने को कार्यकारी हो, उसे उसी प्रकार अंगीकार किया जाय और जो उपदेश जानने योग्य हो, उसे यथार्थ जान लिया जाय। इस प्रकार उपदेश के फल को प्राप्त करना चाहिए।' स्यात्पद की सापेक्षता-सहित सम्यग्ज्ञान द्वारा जो जीव जिन वचनों में रमते हैं, वे जीव शीघ्र ही शुद्धात्मस्वरूप को प्राप्त होते हैं।"
समयसार के सुप्रसिद्ध व्याख्याकार पंडित जयचन्द्र जी कहते हैं -
"व्यवहारनय को कथंचित् असत्यार्थ कहा गया है। इससे यदि कोई उसे सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड़ दे, तो वह शुभोपयोगरूप व्यवहार छोड़ देगा और चूँकि शुद्धोपयोग की साक्षात् प्राप्ति हुई नहीं है, इसलिए उल्टा अशुभोपयोग में ही आकर भ्रष्ट होगा। इससे वह स्वच्छन्द प्रवृत्ति करेगा, तब नरकादि गति तथा परम्परा से निगोद को प्राप्त होकर संसार में ही भटकेगा, इसलिये साक्षात् शुद्धनय का विषय जो शुद्ध आत्मा है उसकी प्राप्ति जब तक न हो, तब तक व्यवहार भी प्रयोजनवान् है, ऐसा स्याद्वादमत में श्रीगुरुओं का उपदेश है।"३
इन वक्तव्यों से स्पष्ट होता है कि साधना के विषय में भगवान् का उपदेश एकान्तात्मक नहीं है, अपितु स्याद्वादात्मक या अनेकान्तात्मक है। जब साधना का उपदेश ही अनेकान्तात्मक है, तब साधना अनेकान्तात्मक कैसे न होगी ? दोनों नयों की सापेक्ष उपादेयता का कथन
यह मान्यता समीचीन नहीं है कि साधना की दृष्टि से व्यवहारनय सर्वत्र हेय है, क्योंकि आगम में उसे साधना की दृष्टि से कथंचित् उपादेय बतलाया गया है। आचार्य जयसेन कहते हैं -
__. “चिदानन्दैकस्वभावो निजशुद्धात्मैव शुद्धनिश्चयनयेनोपादेयं भेदरत्नत्रयस्वरूपं तु उपादेयमभेदरत्नत्रयसाधकत्वाद् व्यवहारेणोपादेयमिति।"
___– चिदानन्दैकस्वभाव निज शुद्धात्मा ही शुद्धनिश्चयनय से उपादेय है। १. मोक्षमार्गप्रकाशक/आठवाँ अधिकार/पृ० ३०१ २. वही, पृ० ३०५ ३. समयसार/भावार्थ/गाथा १२ ४. वही/तात्पर्यवृत्ति/गाथा ११६-१२०
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