Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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मोक्षमार्ग की अनेकान्तात्मकता / २१३
भेदरत्नत्रय भी उपादेय है, किन्तु अभेदरत्नत्रय का साधक होने से व्यवहारनय से उपादेय है।
“व्यवहारमोक्षमार्गे निश्चयरत्नत्रयस्योपादेयभूतस्य कारणभूतत्वादुपादेयः परम्परया जीवस्य पवित्रताकारणत्वात् पवित्रः "।""
- उपादेयभूत निश्चयरत्नत्रय का कारण होने से व्यवहारमोक्षमार्ग उपादेय है तथा परम्परया जीव की पवित्रता का कारण होने से पवित्र है ।
यहाँ स्पष्ट शब्दों में निश्चयमोक्षमार्ग को निश्चयनय से तथा व्यवहारमोक्षमार्ग को व्यवहारनय से उपादेय निरूपित किया गया है। इस विषय में यहाँ सिद्धान्ताचार्य पंडित कैलाशचन्द्र जी का निम्न वक्तव्य उल्लेखनीय है
"यदि शुभोपयोग सर्वथा हेय होता तो आचार्य अमृतचन्द्र श्रावकाचार की रचना न करते और न उसे पुरुषार्थसिद्धयुपाय नाम देते। श्रावक का आचार भी पुरुषार्थ ( मोक्ष ) की सिद्धि का उपाय है, अन्यथा धर्म के श्रावकधर्म और मुनिधर्म दो भेद नहीं होते।'
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ये शब्द अत्यन्त मार्मिकता से व्यवहारनय की आपेक्षिक उपादेयता को अनावृत करते हैं। यह बात गम्भीरता से विचारणीय है कि व्यवहारमोक्षमार्ग का उपदेश वीतराग सर्वज्ञ ने दिया है, किसी साधारण मनुष्य ने नहीं । यदि वह सर्वथा हेय ( छोड़ने योग्य ) होता, तो तीर्थङ्कर परमदेव उसे निश्चयमोक्षमार्ग का साधक बतलाकर विशेष परिस्थितियों में उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) न बतलाते । आगम में निश्चय और व्यवहार दोनों की इस सापेक्ष उपादेयता के वर्णन से मोक्षसाधना की अनेकान्तात्मकता सूचित होती है।
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उपर्युक्त सम्पूर्ण विवेचन का सार यह है कि यद्यपि निश्चयधर्म ही मोक्ष का मार्ग है, क्योंकि उसमें शुभाशुभ दोनों प्रकार की राग प्रवृत्ति का अभाव होता है, जो शुभाशुभ दोनों प्रकार के कर्मों के संवर और निर्जरा का कारण है, तथापि उसका एकान्तरूप से अवलम्बन सम्भव नहीं है। कारण यह है कि विषयकषायों की तीव्रता से युक्त प्राथमिक भूमिका में जीव शुभ और अशुभ दोनों रागों से निवृत्त होकर निर्विकल्पसमाधि में स्थित नहीं हो सकता । इस अवस्था में शुभप्रवृत्ति अर्थात् व्यवहारधर्म के आश्रय द्वारा केवल अशुभराग की निवृत्ति की जा सकती है, जिससे साधक में निश्चयधर्म की साधना के योग्य क्षमता का आविर्भाव होता है। उसके आविर्भूत होने पर निश्चयधर्म के अवलम्बन द्वारा शुभराग की भी निवृत्ति सम्भव
१. समयसार/ तात्पर्यवृत्ति / गाथा १६१ - १६३
२. द्रव्यस्वभावप्रकाशकनयचक्र/प्रस्तावना / पृ० ४०
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