Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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उपादाननिमित्तविषयक मिथ्याधारणाएँ । २२९
कहा है -
उवओगस्स अणाई परिणामा तिण्ण मोहजुत्तस्स । मिच्छत्तं अण्णाणं अविरदिभावो य णायव्यो ।। एएसु य उवओगो तिविहो सुद्धो णिरंजणो भावो । जं सो करेदि भावं उवओगो तस्स सो कत्ता ।।'
– मोहसंयुक्त उपयोग ( चैतन्यपरिणाम ) के अनादि से तीन अशुद्ध परिणाम होते हैं – मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति। इन तीन अशुद्ध परिणामों के निमित्त से यह उपयोग, स्वभाव से शुद्ध और एकरूप होते हुए भी तीन प्रकार का होकर जिस भाव को करता है उस भाव का कर्ता होता है।
आचार्य कुन्दकुन्द के इस कथन से स्पष्ट है कि शुद्धचैतन्यस्वरूप आत्मा के जो मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति ये तीन अशद्ध परिणाम होते हैं वे स्वभावजनित नहीं हैं, बल्कि अनादिसंयुक्त मोहकर्म के निमित्त से होते हैं। इस तथ्य को कुन्दकुन्द ने निम्नलिखित गाथाओं में और भी अच्छी तरह स्पष्ट किया है -
जह फलिहमणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहिं । रंगिज्जदि अण्णेहिं दु सो रत्तादीहिं दव्वेहिं ।। एवं णाणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहिं ।
राइज्जदि अण्णेहिं दु सो रागादीहिं दोसेहिं ।।'
- जैसे स्फटिक मणि स्वभाव से शुद्ध होने के कारण स्वयं रक्तपीतादि रूप से परिणमित नहीं होता, अपितु रक्त-पीत वर्णवाले अन्य द्रव्यों के संयोग से परिणमित होता है, वैसे ही आत्मा स्वभाव से शुद्ध ( रागादिरहित ) होने के कारण स्वयं रागादिरूप से परिणत नहीं होता, अपितु रागादिस्वभाववाले पुद्गलकर्मरूप परद्रव्य के संयोग से परिणत होता है।
यहाँ कुन्दकुन्ददेव ने स्फटिक मणि के दृष्टान्त से यह सम्यग्रूपेण स्पष्ट कर दिया है कि आत्मा में उत्पन्न होने वाले रागादि अशुद्धभाव उपादानप्रेरित नहीं, अपितु निमित्तप्रेरित हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र ने भी कहा है – “आत्मात्मना रागादीनामकारक एव .."परद्रव्यमेवात्मनो रागादिभावनिमित्तमस्तु।" अर्थात् आत्मा अपने आप रागादिभावों को कर ही नहीं सकता। परद्रव्य ही आत्मा के रागादिभावों का निमित्त है।
१. समयसार/गाथा ८९-९० २. वही/गाथा २७८-२७९ ३. वही/आत्मख्याति/गाथा २८३-२८५
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