Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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उपादाननिमित्तविषयक मिथ्याधारणाएँ / २३७
शक्ति कितनी भीषण है, यह आचार्य अमृतचन्द्र के निम्नलिखित वक्तव्य से प्रकट हो जाता है।
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" इह सकलस्यापि जीवलोकस्य संसारचक्रक्रोडाधिरोपितस्य एकच्छत्रीकृतविश्वतया महता मोहग्रहेण गोरिव बाह्यमानस्य
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- अर्थात् संसाररूपी चक्र में फँसे ये जीव समस्त विश्व पर एकछत्र शासन करनेवाले मोहरूप बलवान् पिशाच के द्वारा बैल के समान हाँके जाते हैं।
इस कथन में 'समस्त विश्व पर एकछत्र शासन करनेवाला', 'बलवान् पिशाच' तथा 'जीवों को बैल के समान हाँकनेवाला' इन शब्दों से अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है कि कर्मों की शक्ति कितनी दुर्धर्ष है।
इस दुर्धर्ष एवं जीवस्वभावघातक प्रकृति के कारण ही कर्मों को शत्रु की उपमा दी गई है और उनको जीत लेने के कारण ही आत्मा 'जिन' कहलाता है। “अनेकभवगहनविषयव्यसनप्रापणहेतून् कर्मारातीन् जयतीति जिन:
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कर्मों को शत्रु की उपमा दी गई है। शत्रु उदासीन नहीं होता, आक्रामक होता है, सहायक नहीं होता, बाधक होता है। उससे युद्ध होता है और उसे जीत लेने पर व्यक्ति विजेता या 'जिन' कहलाता है। धर्मादि द्रव्यों को शत्रु की संज्ञा नहीं दी गई, क्योंकि वे उदासीन होते हैं, आक्रामक नहीं, मित्रवत् सहायक होते हैं, शत्रुवत् बाधक नहीं ।
'घाती', 'शत्रु' और 'परतंत्र बनानेवाले' इन विशेषणों से कर्मों का निमित्तस्वरूप स्पष्ट हो जाता है और धर्मादि द्रव्यों के निमित्तात्मक स्वरूप से उसकी विशेषता समझ में आ जाती है। वह यह कि कर्म न केवल प्रेरक हैं, बल्कि आक्रामक, बाधक और घातक हैं। इन्हीं अर्थों में आगम में उन्हें प्रेरक कहा गया है, अन्य किसी अर्थ में नहीं। पूर्वोक्त विद्वानों ने कर्मों के प्रेरक होने का जो अर्थ बतलाया है, वह शब्दों के साथ कितना बड़ा छल-कपट है, यह उपर्युक्त प्रमाणों से सिद्ध हो जाता है। " आत्मद्रव्य अपनी कार्योत्पत्ति में जब बलाधान करता है तब पुद्गलकर्मों का उसमें निमित्त बनना ही उनका प्रेरक होना है", प्रेरकता की उक्त विद्वानों द्वारा की गई यह व्याख्या पुद्गलकर्मों के मोहरागादिस्वभावात्मक तथा आत्म के शुद्धचैतन्यस्वभावात्मक होने का अर्थ ही व्यर्थ कर देती है और आत्मा को स्वभाव से मोहरागादिरूप सिद्ध करती है। यह व्याख्या कर्मों की घातकता से भी अधिक घातक है।
१. समयसार / आत्मख्याति / गाथा ४
२. पञ्चास्तिकाय/तात्पर्यवृत्ति/गाथा १
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