Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 272
________________ २४४ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन होती है कि जिनमत में दो नयों से उपदेश दिया गया है, अतः दोनों का उपदेश एक ही समान सत्य मानकर अंगीकार करना चाहिए। वे इस तथ्य को हृदयंगम नहीं कर पाते कि निश्चय और व्यवहार नयों के कथन अलग-अलग अपेक्षा से सत्य होते हैं, एक ही अपेक्षा से नहीं। अलग-अलग अपेक्षा से सत्य होने पर दोनों नय परस्पर सापेक्ष होते हैं, अपेक्षाभेद न होने पर निरपेक्ष हो जाते हैं । सापेक्ष होने पर ही उनमें विरोध का अभाव होता है, निरपेक्ष होने पर वे विरोधी बन जाते हैं। इस तथ्य से अनभिज्ञ होने के कारण उभयाभासी जीव निश्चय और व्यवहार दोनों नयों को एक ही प्रकार से सत्य मानते हैं। मोक्षमार्गप्रकाशक' के अनुसार उभयाभास के कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं। आगम में वास्तविक मोक्षमार्ग को निश्चयमोक्षमार्ग तथा उसके साधक मार्ग को व्यवहारमोक्षमार्ग संज्ञा दी गई है। इस तरह निश्चयनय से मोक्षमार्ग एक ही है, दो नहीं । किन्तु उभयाभासी लोग निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्ग दोनों को निश्चयनय से मोक्षमार्ग मानते हैं और निश्चयाभासियों के समान काल्पनिक 'शुद्धात्मानुभव तथा व्यवहाराभासियों के समान निश्चयनिरपेक्ष व्रतादि कियाओं का एक साथ अभ्यास करते हैं। इससे न तो निश्चयमोक्षमार्ग सिद्ध हो पाता है, न व्यवहारमोक्षमार्ग | कुछ उभयाभासियों की यह धारणा होती है कि निश्चयमोक्षमार्ग तथा व्यवहारमोक्षमार्ग दोनों वास्तविक मोक्षमार्ग हैं, किन्तु निश्चयमोक्षमार्ग केवल श्रद्धा में उपादेय है और व्यवहारमोक्षमार्ग प्रवृत्ति में । यह धारणा मिथ्या है। यदि निश्चयमोक्षमार्ग प्रवृत्ति में उपादेय न हो, तो उसके लिए भगवान् ने मोक्षमार्ग शब्द का प्रयोग क्या मात्र दस्तूर निभाने के लिए किया है ? आत्मा स्वभाव से शुद्धचैतन्यस्वरूप है, परन्तु कर्मोपाधि के निमित्त से मोहरागादिरूप में परिणत होता है। इसलिए सर्वज्ञ ने उसे द्रव्यप्रधान निश्चयनय से शुद्धचैतन्यस्वरूप तथा पर्यायप्रधान व्यवहारनय से मोहरागादिरूप बतलाया है। किन्तु दोनों नयों के कथन को एक ही प्रकार से सत्य माननेवाले उभयाभासी आत्मा को स्वभाव से शुद्धचैतन्यस्वरूप भी मानते हैं और मोहरागादिस्वरूप भी, जो प्रकाश और अन्धकार के समान परस्पर विरोधी हैं । इसी प्रकार मुनि जब शुभोपयोग को छोड़कर शुद्धोपयोग का प्रयत्न करता है, तब वह प्रयत्न की अवस्था शुद्धोपयोग का साक्षात् उपादान होती है । किन्तु यह प्रयत्न शुभोपयोग में अभ्यस्त सम्यग्दृष्टि श्रमण ही कर सकता है। इसलिए १. मोक्षमार्गप्रकाशक / अधिकार ७ / पृ० २४८-२५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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