Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 270
________________ २४२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन सम्यग्दृष्टि साधक को कर्मोदयजनित विषयभोग में आसक्ति नहीं होती। इसलिए विषयभोग करते हुए भी जितने अंश में रागरहित होता है उतने अंश में उसे कर्मबन्ध नहीं होता, निर्जरा ही होती है। इस कारण भगवान् ने निश्चयनय की अपेक्षा यह कहा है कि सम्यग्दृष्टि को विषयभोग से बन्ध नहीं होता। किन्तु निश्चयाभासी जीव आत्मा की चर्चा करने मात्र से अपने को सम्यग्दृष्टि मान लेते हैं और बन्ध के भय से रहित होकर स्वच्छन्दतापूर्वक विषयभोग करते हैं। उपादान कार्य का मुख्य हेतु है और निमित्त सहकारी हेतु। इसलिए आगम में उपादान को निश्चयनय से और निमित्त को व्यवहारनय से कार्य का हेतु बतलाया गया है। किन्तु व्यवहारनय को सर्वथा असत्य माननेवाले एकान्तनिश्चयावलम्बी लोग किसी पदार्थ को निमित्त कहा जाना उपचारकथन मानते हैं, यथार्थ कथन नहीं। अत: निमित्त को असत्य और अकिंचित्कर कहकर मोक्षमार्ग के निमित्तभूत साधनों ( व्यवहारमोक्षमार्ग ) का अवलम्बन नहीं करते और पापप्रवृत्तियों में संलग्न रहते हुए औपचारिक स्वाध्याय तथा काल्पनिक ध्यान का निष्फल कर्मकाण्ड करते रहते हैं इन उदाहरणों से निश्चयाभासी मान्यताओं का परिचय मिलता है। व्यवहाराभास निश्चयनय के कथन में श्रद्धा न कर एकमात्र व्यवहारनय के कथन को सर्वथा सत्य मान लेना व्यवहारैकान्त या व्यवहाराभास कहलाता है। इसके उदाहरण इस प्रकार हैं - व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्ग का साधक है, स्वयं मोक्षमार्ग नहीं है, किन्तु एकान्तव्यवहारावलम्बी उसे ही मोक्षमार्ग मान लेते हैं और व्रतादि शुभ क्रियाएँ करते रहते हैं, जिससे पुण्यबन्ध द्वारा स्वर्गादि की प्राप्ति तो हो जाती है, मोक्ष प्राप्त नहीं हो पाता। सर्वज्ञ ने व्यवहारनय से अशुभभाव की अपेक्षा शुभभाव को उपादेय बतलाया है, किन्तु मोक्ष की दृष्टि से निश्चयनय की अपेक्षा दोनों हेय कहे गये हैं। फिर भी केवल व्यवहार के पक्ष में झुकनेवाले मिथ्यादृष्टि शुभभाव को ही मोक्ष का उपाय मानते हैं। अनशनादि बाह्य तप शुद्धोपयोगरूप वास्तविक तप की वृद्धि का हेतु है, इसलिए आगम में उसे व्यवहारनय से तप कहा गया है। व्यवहारनय के अभिप्राय को यथार्थत: न समझनेवाले व्यवहाराभासी उसे वास्तविक तप समझ लेते हैं और निर्जरा का कारण मानते हैं, जबकि बाह्यप्रवृत्ति निर्जरा का हेतु नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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