Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 258
________________ २३० / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन आचार्य जयसेन का भी कथन है ज्ञा निजीवजनिता: । " - रागादि कर्मोदयजनित हैं, ज्ञानीजीवजनित नहीं हैं। "कर्मोदयजनिता रागादयो न तु ये युक्तियाँ और आर्षवचन इस निष्कर्ष पर पहुँचाते हैं कि जीव या पुद्गल से उत्पन्न होनेवाले अशुद्धभाव वस्तुतः निमित्तप्रेरित ही होते हैं, किन्तु जब निमित्त को उपादान में अन्तर्भूत कर उपादान को अशुद्ध उपादान के रूप में ग्रहण कर लेते हैं, तब यह कहना भी संगत होता है कि अशुद्धकार्य उपादान से ही प्रेरित होता है या प्रत्येक कार्य का नियमन उपादान करता है। आचार्य जयसेन के निम्नलिखित वक्तव्य से स्पष्ट हो जाता है कि जो निमित्त उपादान में अन्तर्भूत होता है उसके द्वारा प्रेरित अशुद्धभाव ही अशुद्धोपादानजन्य कहलाते हैं। “जीवपुद्गलसंयोगेनोत्पन्ना मिथ्यात्वरागादिभावप्रत्यया अशुद्धनिश्चयनयेनाशुद्धोपादानरूपेण चेतना जीवसम्बद्धाः । " " - जीव और पुद्गल के संयोग से उत्पन्न मिथ्यात्वरागादि भावप्रत्यय अशुद्ध निश्चयनय से अशुद्धोपादानजनित होने के कारण चेतन हैं, अर्थात् आत्मा के हैं। इस व्याख्यान में आचार्यश्री ने 'जीव - पुद्गलसंयोग से उत्पन्न' इन शब्दों के द्वारा यह निर्देश कर दिया है कि मिथ्यात्वरागादिभाव निमित्तप्रेरित हैं तथा 'अशुद्धोपादानजनित होने से चेतन हैं' इस वचन से यह भी स्पष्ट कर दिया है कि इस प्रकार निमित्तप्रेरित भावों को ही अशुद्धोपादान द्वारा नियमित कहते हैं । अतः अशुद्धोपादानजन्य कार्य निमित्तप्रेरित होते हैं या उनका नियमन अशुद्धोपादान करता है, इन दोनों कथनों का आशय एक ही है। इनमें केवल भाषा का अन्तर है, अर्थ का नहीं। अशुद्ध उपादान के भीतर निमित्त समाया हुआ है, अतः 'अशुद्ध कार्य का नियमन अशुद्धोपादान करता है' इस कथन से भी यही फलित होता है कि अशुद्धकार्य निमित्त प्रेरित हैं। १. समयसार / तात्पर्यवृत्ति/गाथा २७८- २७९ २ . वही / तात्पर्यवृत्ति/गाथा १०९ - ११२ कर्म प्रेरक निमित्त ही हैं प्रत्येक कार्य को उपादान - प्रेरित सिद्ध करने के लिए चर्चित विद्वानों ने कर्मरूप निमित्त की प्रेरकता को ही अमान्य कर दिया। वे कहते हैं कि कर्म भी धर्मादि द्रव्यों के समान उदासीन निमित्त हैं, प्रेरक नहीं । उनके अनुसार जैसे धर्मादि द्रव्य जीव के गति आदि क्रिया में स्वयं प्रवृत्त होने पर सहायता मात्र करते हैं, वैसे ही जब जीव रागादिरूप से परिणत होने के लिए स्वयं प्रवृत्त होता है, तब Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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