Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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उपादाननिमित्तविषयक मिथ्याधारणाएँ । २२७
प्रकार परम्परया निमित्तरूप से घट-पट आदि के विषय में जीव का कर्तृत्व होता
इन निरूपणों में जीव को घट-पटादि का कर्ता कहने के उपचारवचन का निषेध किया गया है और उसके योगोपयोग के ही घटादि का निमित्तकर्ता होने का प्रतिपादन किया गया है। यदि निमित्तकर्ता कहना भी उपचारवचन होता तो उसका भी निषेध किया जाता, किन्तु समस्त अध्यात्मग्रन्थों में कहीं भी निषेध नहीं किया गया है, सर्वत्र प्रतिपादन ही किया गया है। इतना ही नहीं, 'ही' ( एव ) शब्द के प्रयोग द्वारा इसे ही यथार्थ मानने पर जोर दिया गया है। अतः इन आचार्यवचनों से प्रमाणित है कि एक वस्तु को दूसरी वस्तु के कार्य का निमित्तकर्ता कहना सर्वथा यथार्थवचन है।
निष्कर्ष यह है कि आगम में किसी भी पदार्थ के लिए निमित्त शब्द का प्रयोग उपचार से नहीं हुआ है, अपितु मुख्यतः ही किया गया है। निमित्त के अभाव में कार्य असम्भव होता है, इसलिए कार्य की उत्पत्ति में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। उसे असत्य या अकिंचित्कर कहना आगम का अपलाप है।
जिस दूसरी मिथ्या धारणा का प्रसव किया गया है, वह यह है कि प्रत्येक कार्य उपादानप्रेरित ही होता है, निमित्तप्रेरित नहीं। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक कार्य का नियामक उपादान ही है, निमित्त नहीं, तथा कोई भी निमित्त प्रेरक नहीं होता, सभी उदासीन होते हैं।' इस धारणा को जन्म देनेवाले विद्वानो का कहना है कि कार्य को निमित्त-प्रेरित मानने पर प्रत्येक कार्य के प्रति उपादान की कोई नियामकता नहीं रहती। अत: उपादान से वही कार्य उत्पन्न होता है, जिसे उत्पन्न करने की उस समय उसमें योग्यता होती है। कोई भी निमित्त उससे अन्य कार्य की उत्पत्ति नहीं करा सकता। वे इसके समर्थन में स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा का यह वचन उद्धृत करते हैं कि "द्रव्य की पूर्वपर्याय उपादान कारण होती है और उत्तरपर्याय कार्य। अत: अनन्तर ( अव्यवहित.) पूर्व समय में जैसा उपादान होगा, अनन्तर उत्तरक्षण में उसी प्रकार का कार्य उत्पन्न होगा। निमित्त उसे अन्यथा नहीं परिणमा सकता।"
. उदाहरणार्थ, खेत में बोये हुए बीज से पहले अंकुर ही उत्पन्न होगा, पत्र या पुष्प नहीं। जीव की अयोगकेवली अवस्था के अन्तिम क्षण से मुक्त अवस्था १. जैनतत्त्वमीमांसा/पृ० ५३-५८ २. वही/पृ० ५९ ३. पुव्वपरिणामजुत्तं कारणभावेण वट्टदे दव्वं ।
उत्तरपरिणामजुदं तं चिय कज्ज हवे णियमा ।। स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २३० ४. जैनतत्त्वमीमांसा/पृ० ५३
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