Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
उपादाननिमित्तविषयक मिथ्याधारणाएँ / २२५
आत्मा स्वयं रागादिरूप-परिणमित नहीं होता। यह वस्तु का स्वभाव है । ' द्विक्रियाकारिता का प्रसंग नहीं
कथित पंडितजनों का मत है कि कार्योत्पत्ति में निमित्त का प्रभाव मानने से द्विक्रियाकारिता ( एक द्रव्य द्वारा दो द्रव्यों की क्रियाएँ किये जाने ) का प्रसंग आता है।' किन्तु यह उनकी भ्रान्ति है। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार एक द्रव्य द्वारा उपादानरूप से दो द्रव्यों की क्रियाएँ किये जाने को द्विक्रियाकारिता कहते हैं । स्वयं की क्रिया को उपादानरूप से करने तथा अन्य द्रव्य की क्रिया में निमित्तमात्र बनने को उन्होंने द्विक्रियाकारिता नहीं कहा। जैसा कि कहा जा चुका है, आचार्य कुन्दकुन्द स्वयं कहते हैं कि जीव और पुद्गल एक-दूसरे के निमित्त से अपने-अपने परिणाम को उत्पन्न करते हैं। पूर्व में प्रतिपादित किया गया है कि किसी पदार्थ के स्वभाव में ऐसी विशेषता होना, जिससे दूसरे पदार्थ के परिणमन का मार्ग प्रशस्त हो जाय, निमित्तभाव कहलाता है। इसलिए दूसरे के प्रति निमित्त बन सकने वाले अपने स्वभाव में परिणत होना अपनी ही क्रिया है, परद्रव्य की नहीं । धर्मद्रव्य अपने ही स्वभाव में परिणमित होता है, किन्तु उसका परिणमन जीव और पुद्गल की गति का निमित्त बन जाता है, तो क्या धर्मद्रव्य दो द्रव्यों की क्रियाएँ करता है ? सूर्य भी अपने ही प्रकाश - स्वभाव में परिणमित होने की क्रिया करता है, वह क्रिया कमलों के विकास के अनुकूल होती है और उस अनुकूलता को पाकर कमल खिल जाते हैं, तो क्या सूर्य कमल की क्रिया भी करता है ? स्पष्ट है कि परद्रव्य के कार्य में निमित्त बननेवाले अपने स्वभाव में परिणत होना दो द्रव्यों की क्रियाएँ करना नहीं है।
निमित्त से स्वतन्त्रता बाधित नहीं होती
४
उक्त विद्वानों का मत है कि कुम्भकार को घटोत्पत्ति में सहायक मानने से द्रव्य की स्वतन्त्रता बाधित होती है। यह मत समीचीन नहीं है, क्योंकि कार्योत्पत्ति में उपादान की ही प्रधानता है, वही कार्यरूप में परिणत होता है, निमित्त तो मात्र
१. न जातु रागादिनिमित्तभावमात्मात्मनो याति यथार्ककान्तः ।
तस्मिन्निमित्तं परसङ्ग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ।। समयसार / कलश १७५ २. जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा / भाग २ / पृ० ८४३-८४४
३. “यथा व्याप्यव्यापकभावेन स्वपरिणामं करोति जीवस्तथा व्याप्यव्यापकभावेन पुद्गलकर्मापि कुर्यात् ततो, स्वपरसमवेतक्रियाद्वयाव्यतिरिक्तायां प्रसजन्त्याम्।”
समयसार / आत्मख्याति / गाथा ८५
४. जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा / भाग २ / पृ० ८४०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org