Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 239
________________ मोक्षमार्ग की अनेकान्तात्मकता / २११ इन अपवादसापेक्ष उत्सर्ग तथा उत्सर्गसापेक्ष अपवाद से ही चारित्र की रक्षा होती है। क्योंकि मृदु आचरण द्वारा थोड़ा बहुत दोष तो लगता ही है, इस भय से शरीर की चिन्ता किये बिना कठोर आचरण ही किया गया, तो शरीर के नष्ट हो जाने पर पूर्वकृत् पुण्यों से स्वर्ग प्राप्त होगा। वहाँ संयम सम्भव न होने से और भी अधिक दोष लगेगा। अत: अधिक दोष की अपेक्षा अल्पदोष वाला अपवादसापेक्ष उत्सर्ग ही श्रेयस्कर है।' तथा मृदु आचरण द्वारा अल्पदोष ही तो लगता है, ऐसा सोचकर स्वच्छन्दरूप से मृदु आचरण किया गया, तो इस लोक में ही संयम का विनाश हो जायेगा, जिससे महान् दोष लगेगा। अत: उत्सर्गसापेक्ष अपवाद ही श्रेयस्कर है। फलस्वरूप उत्सर्ग और अपवाद के परस्परविरोध ( एकान्त अनुगमन ) से होने वाली चारित्र की हानि का निवारण करना चाहिए। इसी हेतु उत्सर्ग और अपवाद की परस्परसापेक्षता से सिद्ध स्याद्वाद सर्वथा अनुगम्य है - “अतः सर्वथोत्सर्गापवादविरोधदौस्थित्यमाचरणस्य प्रतिषेध्यं तदर्थमेव - सर्वथानुगम्यश्च परस्परसापेक्षोत्सर्गापवादविजृम्भितवृत्तिः स्याद्वादः।"२ तात्पर्य यह है कि साधना में स्याद्वाद या अनेकान्त का अनुसरण करने से ही चारित्र की रक्षा होती है।' | उभयनयायत्ता पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तना ___“सर्वज्ञ वीतराग द्वारा उपदिष्ट मोक्षमार्ग की सिद्धि निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयों के अधीन है" आचार्य अमृतचन्द्र जी के ये वचन उच्चस्वर में साधना की अनेकान्तात्मकता का उद्घोष करते हैं। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि मोक्ष की साधना अनेकान्तात्मक नहीं है, वह केवल निश्चयनयाश्रित है, व्यवहारनय तो साधना की अपेक्षा सर्वत्र हेय ही है। यह मान्यता कितनी आगमविरुद्ध है, यह उपर्युक्त विवेचन से प्रमाणित हो जाता है। “सर्वथानुगम्यः स्याद्वादः", "उभयनयायत्ता तीर्थप्रवर्तना" तथा "नास्त्येकान्तः" इन तीन आप्तवचनों से ही यह मान्यता असत् सिद्ध हो जाती है। पंडित टोडरमल जी का कथन है – “सर्व जिनमत का चिह्न स्याद्वाद है १. “अल्पलेपं बहुलाभमपवादसापेक्षमुत्सर्ग स्वीकरोति।' प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्ति ३/३१ २. वही/तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति ३/३१ ३. “अथ निश्चयव्यवहारसंज्ञयोरुत्सर्यापवादयोः कथंचित्परस्परसापेक्षभावं स्थापयन् चारित्र स्य रक्षां दर्शयति।" वही/तात्पर्यवृत्ति ३/३१ ४. पञ्चास्तिकाय/तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति/गाथा १५९ ५. परमात्मप्रकाश/ब्रह्मदेवटीका २/३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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