Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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२१८ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
न हो, तो उसका अन्यत्र उपचार भी उपपन्न न होगा। घृत की मुख्यरूप से ( वास्तव में ) सत्ता होती है, तभी तो उसका मिट्टी पर आरोप कर मृत्कुम्भ को घृतकुम्भ कहा जाता है। यदि लोक में घी का अस्तित्व न हो, तो क्या किसी घड़े को घी का घड़ा कहा जा सकता है ?
इस प्रकार उक्त पण्डितजन उपचार के इस नियम को स्वीकार कर स्वयं ही निमित्त को सर्वथा असत्य मानने की अपनी धारणा मिथ्या सिद्ध कर देते हैं। निमित्त के उपचार का कोई प्रयोजन नहीं
उपचार का दूसरा नियम यह है कि वह किसी प्रयोजन से किया जाता है। प्रयोजन के अभाव में उपचार की प्रवृत्ति नहीं होती। अब प्रश्न है कि जो वस्तु निमित्त नहीं है, उसे उपचार से निमित्त कहने का क्या प्रयोजन है ? उक्त पंडितवर्ग का कथन है कि मात्र एक साथ होने के नियम के कारण उपादान से भिन्न पदार्थ को उपचार से निमित्त कहा जाता है। यहाँ प्रश्न है कि जो पदार्थ केवल साथ रहता है, कुछ सहायता नहीं करता उसे सहचर कहा जाना चाहिए, उसमें कारणवाचक 'निमित्त' संज्ञा का उपचार किस प्रयोजन से किया जाता है ? विचार करने पर कोई भी प्रयोजन प्रतीत नहीं होता। इसलिए पंडितजनों का यह कथन अयुक्तिसंगत ठहरता है कि मात्र एक साथ होने के नियम के कारण उपादान से भिन्न पदार्थ में निमित्तभाव का उपचार किया जाता है।
__आगम में कहीं भी किसी पदार्थ को उपचार से निमित्त नहीं कहा गया है, जो मुख्यत: निमित्त है उसी के लिए 'निमित्त' शब्द का प्रयोग हुआ है, क्योंकि अनिमित्त को निमित्त कहने का कोई प्रयोजन ही नहीं है।
यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि यदि ऐसा है तो आगम में 'कुम्भकार व्यवहारनय से घट का निमित्त है' अथवा 'धर्मद्रव्य व्यवहारनय से जीव और पुद्गल की गति का निमित्त है ऐसा क्यों कहा गया है ? समाधान यह है कि निमित्तनैमित्तिकसम्बन्ध भिन्न वस्तुओं में होता है, अत: भिन्नवस्तुसम्बन्ध की दिशा से अवलोकन करनेवाले व्यवहारनय से ही वह अनुभव में आता है। यही दर्शाने के लिए कुम्भकारादि को व्यवहारनय से घटादि का निमित्त कहा गया है, अनिमित्त में निमित्त का उपचार करने के कारण नहीं। व्यवहारनय का विषय होने से यह नहीं समझ लेना चाहिए कि निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का कथन उपचार से किया जाता है, अत: असत्य है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में कहा गया है - १. “न तौ तयोमुख्यहेतू, किन्तु व्यवहारनयव्यवस्थापितौ उदासीनौ।"
पञ्चास्तिकाय/तत्त्वदीपिका/गाथा ८९
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