Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 242
________________ २१४ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन होती है। इस निश्चयधर्म की उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए जीव समस्त कर्मों से मोक्ष प्राप्त कर लेता है। निश्चयधर्म के अवलम्बन की सामर्थ्य आ जाने पर व्यवहारधर्म कार्यकारी नहीं होता। इस तरह निम्न भूमिका में निश्चयधर्म अवलम्बनयोग्य नहीं होता और उच्च भूमिका में व्यवहारधर्म अवलम्बनीय नहीं है। निम्न भूमिका में निश्चयसापेक्ष व्यवहारधर्म तथा उच्च भूमिका में व्यवहारसापेक्ष निश्चयधर्म के अवलम्बन से ही मोक्ष की सिद्धि होती है। अतः मोक्ष की साधना अनेकान्तात्मक अनेकान्तात्मकता की मनोवैज्ञानिक भित्ति साधना की अनेकान्तात्मकता मनोवैज्ञानिक भित्ति पर आश्रित है। वह भित्ति है साधक की सामर्थ्य। मोक्षमार्ग पर अग्रसर होने के लिए साधक में जिस समय जितनी साधनासामर्थ्य होती है, उतनी ही साधना का विधान जिनेन्द्रदेव ने किया है। इस कारण उसमें दो मार्ग. बन गए हैं : व्यवहार और निश्चय। यही उसकी अनेकान्तात्मकता का हेतु है। इस अनेकान्तात्मकता का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। उल्लंघन का तात्पर्य है मोक्ष को असम्भव बना देना। इस विषय में आचार्य अमृतचन्द्र के ये वचन स्मरणीय हैं - मग्नाः कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञानं न जानान्ति ये मग्ना ज्ञाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः । विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्त: स्वयं ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमादस्य च ।।' - आत्मानुभूति ( शुद्धोपयोग ) से विमुख होकर जो केवल कर्मकाण्ड को ही मोक्षमार्ग समझते हैं और उसमें उलझे रहते हैं, वे भी भवसागर में डूब जाते हैं और जो एकमात्र आत्मानुभूति को ही उपादेय समझकर उसे प्राप्त किये बिना ही बाह्य कर्मकाण्ड को त्याग देते हैं और स्वच्छन्द होकर प्रमादी बन जाते हैं, वे भी डूब जाते हैं। भवसागर के ऊपर वही तैरते हैं, जो आत्मानुभूति के योग्य बनकर, उसमें स्थित होकर कर्मकाण्ड से विरत होते हैं तथा आत्मानुभूति के अभाव में उसका अवलम्बन लेकर प्रमाद के वशीभूत नहीं होते। इस कलश का भावार्थ पूज्य आचार्य विद्यासागर जी ने निम्नलिखित पद्य में बड़े सुन्दर शब्दों में निबद्ध किया है - ज्ञान बिना रट निश्चय-निश्चय निश्चयवादी भी डूबे, क्रियाकलापी भी ये डूबे, डूबे संयम से ऊबे । १. समयसार/कलश १११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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