Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 234
________________ २०६ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन जब तक उससे हित हो तभी तक ग्रहण करने योग्य है। यदि उच्च भूमिका में पहुँचने पर भी कोई निम्न भूमिका का धर्म सेवन करता रहे, तो हानि होगी। जैसे पाप मिटाने के लिए प्रतिक्रमणादि धर्मकार्यों का उपदेश दिया गया है, किन्तु आत्मानुभव होने पर उनका विकल्प किया जाय तो दोष होता है। इसीलिए समयसार में प्रतिक्रमणादि को विष कहा है। इसी प्रकार अव्रती के लिए विहित धर्मकार्यों को व्रती करे तो पापबन्ध होगा।" यह कथन इस तथ्य पर प्रकाश डालता है कि आगम में भिन्न-भिन्न भूमिका में भिन्न-भिन्न धर्मग्रहण करने का उपदेश दिया गया है, क्योंकि साधक के लिए कोई एक ही साधना सभी भूमिकाओं में उपयुक्त नहीं है। निम्न भूमिका में निश्चयसाधना उपयुक्त नहीं है, उच्च भूमिका में व्यवहारसाधना उपयुक्त नहीं है। भिन्नभिन्न भूमिका में भिन्न-भिन्न साधना उपयुक्त है। इससे सिद्ध है कि मोक्ष की साधना एकान्तात्मक नहीं है, अपितु अनेकान्तात्मक है। व्यवहार की हेयोपादेयता भूमिकानुसार आगम में व्यवहारधर्म को सभी अवस्थाओं में हेय नहीं बतलाया गया है, अपितु जब साधक निश्चयधर्म की साधना के योग्य बन जाता है, तब हेय बतलाया गया है। परमात्मप्रकाश की टीका में योगीन्दुदेव एवं उनके शिष्य प्रभाकरभट्ट के प्रश्नोत्तर द्वारा इस तथ्य को अच्छी तरह प्रकाशित किया गया है। योगीन्दुदेव कहते हैं -- “जो निश्चयनय से पाप-पुण्य को समान नहीं मानता वह संसार में भटकता हैं।" तब शिष्य प्रभाकरभट्ट प्रश्न करता है - "यदि ऐसी बात है, तो जो पुण्य-पाप को समान मानकर बैठ जाते हैं, उन्हें आप दोष क्यों देते हैं ?" इस पर गुरुदेव उत्तर देते हैं – “यदि वे शुद्धात्मानुभूतिरूप निर्विकल्प परमसमाधि प्राप्त करके ऐसा करते हैं तो उचित ही है, किन्तु यदि उस अवस्था को प्राप्त किये बिना ही गृहस्थावस्था में दान-पूजादि त्याग देते हैं, और मुनि-अवस्था में षडावश्यकादि, तो वे न श्रावक रहते हैं, न साधु। तब तो दोष देने योग्य ही हैं।" जयसेनाचार्य ने भी पञ्चास्तिकाय, गाथा १७२ की टीका में ऐसा ही कहा १. मोक्षमार्गप्रकाशक/आठवाँ अधिकार/पृ० ३००-३०१ २. "तर्हि ये केचन पुण्यपापद्वयं समानं कृत्वा तिष्ठन्ति तेषां किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति ? भगवानाह यदि शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं त्रिगुप्तिगुप्तवीतरागनिर्विकल्पपरमसमाधि लब्ध्वा तिष्ठन्ति तदा सम्मतमेव। यदि पुनस्तथाविधामवस्थामलभमाना अपि सन्तो गृहस्थावस्थायां दानपूजादिकं त्यजन्ति तपोधनावस्थायां षडावश्यकादिकं च त्यक्त्वोभयभ्रष्टाः सन्तः तिष्ठन्ति तदा दूषणमेवेति तात्पर्यम्।" परमात्मप्रकाश/ब्रह्मदेवटीका, २/५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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