Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 211
________________ साध्यसाधकभाव की भ्रान्तिपूर्ण व्याख्याएँ / १८३ २ ३ रूप' और उपयोगरूप । अनन्तानुबन्धी आदि कषायचतुष्कों के उपशमादि से प्रकट होनेवाला आंशिक वीतरागभाव लब्धिरूप निश्चयधर्म है तथा मोक्षप्राप्ति के लिये प्रयत्नपूर्वक किया जानेवाला शुद्धोपयोग (निर्विकल्प समाधि ) उपयोगरूप निश्चयधर्म है। पुण्यपरिणतिरूप बाह्य क्रिया शुद्धोपयोग की अवस्था में नहीं होती, क्योंकि दोनों में परस्पर विरोध है। वह लब्धिरूप निश्चयधर्म की अवस्था में, जब शुद्धोपयोग सम्भव नहीं होता, तब होती है । व्रतादि धारण करने का सामर्थ्य लब्धिरूप निश्चयधर्म से ही आता है। अतः पुण्यपरिणतिरूप बाह्यक्रिया उसी से फलित होती है और उसी के साथ उसका ( पुण्यपरिणतिरूप बाह्य क्रिया का ) साहचर्य होता है और उसके साथ होने पर ही वह सम्यक् होती है। इसी दृष्टि से यह कहा जाता है कि 'परिणाम सुधरने पर बाह्य क्रिया सुधरती ही है । " अथवा निश्चय के साथ व्यवहार अपरिहार्य है । अन्तस्तल में भावना होने पर बाह्य व्यवहार में अवतरित हुये बिना नहीं रह सकती । और इसी तथ्य के आधार पर पं० टोडरमल जी ने यह कहा है कि निश्चयधर्म के प्रकट हुए बिना जो व्रतादिधारण किये जाते हैं वे सफल नहीं होते । अतः जितने अंश में वीतरागता आई हो उतने ही अंश में व्रतादि ग्रहण करना चाहिए।' लब्धिरूप निश्चयधर्म से फलित होने वाली यह पुण्यपरिणतिरूप बाह्यक्रिया शुद्धोपयोगरूप निश्चयधर्म की सिद्धि में सहायक होती है, जो कि मोक्ष का साधन है। इसी उद्देश्य से उसका बुद्धिपूर्वक अवलम्बन किया जाता है। इसीलिये आगम में उसे व्यवहारधर्म कहा गया है। ५ लब्धिरूप निश्चयधर्म चतुर्थ गुणस्थान से आरम्भ होता है। उस आरम्भिक निश्चयधर्म की सिद्धि में जो साधना सहायक होती है, उसे भी आगम में व्यवहारधर्म १. जैसे ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से प्रकट होने वाले ज्ञान को लब्धिरूपज्ञान कहा गया है, वैसे ही यहाँ अनन्तानुबन्धी आदि कषायों के उपशमादि से प्रकट होने वाले आंशिक वीतरागभाव के लिए 'लब्धि' विशेषण का प्रयोग किया गया है। २. "निर्विकल्पसमाधिकाले व्रताव्रतस्य स्वयमेव प्रस्तावो नास्ति । " समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा १५४ ३. वही, गाथा १७७-१७८ ४. रागादिक्षयतारतम्यविकसच्छुद्धात्मसंवित्सुख स्वादात्मस्वबहिर्बहिस्त्रसवधाद्यंहोव्यपोहात्मसु । सद्ग्दर्शनिकादिदेशविरतिस्थानेषु चैकादश स्वेकं यः श्रयते यतिव्रतरतस्तं श्रदधे श्रावकम् ।। सागारधर्मामृत १/१६ ५. मोक्षमार्गप्रकाशक / अधिकार ८/ पृ० २७९ ६. द्रव्यस्वभावप्रकाशकनयचक्र/प्रस्तवना / पृ० ४१ ७. मोक्षमार्गप्रकाशक / अधिकार ७ / पृ० २३८-२४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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