Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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साध्यसाधकभाव की भ्रान्तिपूर्ण व्याख्याएँ / १९७
ये वचन आचार्य जयसेन ने समयसार की २३६वीं गाथा की व्याख्या में कहे हैं। वे कहते हैं कि यहाँ मैंने यह दर्शाने का प्रयत्न किया है कि निश्चय और व्यवहार नयों में सुवर्णपाषाण और अग्नि के समान साध्य साधकभाव है जैसा कि 'जइ जिणसमई' इत्यादि गाथा में बतलाया गया है।
इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्तुत गाथा का आशय यह नहीं है कि व्यवहारनय के विषय को मात्र जान लेने या उसकी सत्ता स्वीकार कर लेने से मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति सम्भव होती है, अपितु आशय यह है कि व्यवहारनय द्वारा प्रतिपादित धर्म का आचरण करने से मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति हो पाती है। अतः चर्चित विद्वज्जनों ने उक्त गाथा का जो यह आशय बतलाया है कि व्यवहारनय के विषय को जानने मात्र से जीव में शुद्धोपयोगरूप निश्चयमोक्षमार्ग को ग्रहण करने की सामर्थ्य आ जाती है, वह आगमविरुद्ध है। उपर्युक्त गाथा यही सिद्ध करती है कि निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म में कार्यकारणभावरूप साध्य-साधकभाव है, अतः निश्चय और व्यवहारनय परस्परसापेक्ष हैं।
साध्य-साधकभाव की मनोवैज्ञानिकता
निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म का साध्य - साधकभाव मनोवैज्ञानिक है। इसमें आत्मा से परमात्मा बनने की सामर्थ्य के क्रमिक विकास का स्वाभाविक सिद्धान्त अन्तर्निहित है। अनादिकाल से दुर्निवार विषयकषायों के वेग से अभिभूत जीव सहसा वीतरागभावरूप निश्चयमोक्षमार्ग में स्थित नहीं हो सकता। यह विषयकषायों के वेग को धीरे-धीरे कम करने की विधि से ही सम्भव है । व्यवहारमोक्षमार्ग इसी का साधन है। इसमें स्थित होने से जब विषय कषायों के वेग पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया जाता है, तब वीतरागभावरूप निश्चयधर्म में स्थित होने की क्षमता उत्पन्न होती है। इस प्रकार निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म का साध्य-साधकभाव मनोवैज्ञानिक भित्ति पर आधारित है । अतः उसका किसी भी प्रकार सर्वथा निषेध नहीं किया जा सकता। उसके सर्वथा निषेध या गर्दा का एकमात्र फल मोक्ष को असम्भव बना देना है।
इस तरह स्पष्ट होता है कि निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्ग में साध्यसाधकभाव का निषेध करने के लिए कुछ विद्वज्जनों ने जो तर्क प्रस्तुत किये हैं तथा साध्य-साधकभाव की जो अन्यथा व्याख्याएँ की हैं, वे निराधार एवं आगमविरुद्ध हैं।
निश्चयधर्म एवं व्यवहारधर्म में सुवर्णपाषाण और अग्नि के समान ही कार्यकारणात्मक साध्य-साधकभाव है, अर्थात् जैसे अग्नि के संयोग से सुवर्णपाषाण का मैल दूर हो जाता है और वह शुद्ध स्वर्ण बन जाता है, वैसे ही व्यवहारधर्म
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