Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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साध्यसाधकभाव की भ्रान्तिपूर्ण व्याख्याएँ । १९९
विद्वानों ने यह प्रयास किया है कि निश्चय और व्यवहार में सापेक्षता भी सिद्ध हो जाय तथा व्यवहारधर्म निश्चयधर्म का साधक भी सिद्ध न हो पाये। किन्तु, अष्टशती के 'सापेक्षत्वमुपेक्षा' ( प्रतिपक्षी धर्म के प्रति उपेक्षाभाव रखना सापेक्षत्व है ) इस वचन की यह व्याख्या अत्यन्त भ्रान्तिपूर्ण एवं हास्यास्पद है। 'निरपेक्षत्वं प्रत्यनीकधर्मस्य निराकृतिः सापेक्षत्वमुपेक्षा' ( अर्थात् प्रतिपक्षी धर्म का निषेध करना निरपेक्षत्व है और उसके प्रति उपेक्षाभाव रखना सापेक्षत्व है ) इस सम्पूर्ण वाक्य पर ध्यान देने से स्पष्ट होता है कि उपेक्षा का अर्थ प्रतिपक्षी धर्म को 'छोड़ने योग्य' समझना नहीं है, अपितु उसके प्रति तटस्थ रहना है। तटस्थ रहने का अभिप्राय है न निषेध करना, न ग्रहण करना। क्योंकि नय एक ही धर्म को लेकर वस्तु की व्याख्या करता है, इसलिए प्रतिपक्षी धर्म से उसे प्रयोजन नहीं रहता, किन्तु वह उसके अस्तित्व का निषेध नहीं करता, अपितु प्रतिपक्षी नय का विषय मानकर उसके विषय में मौन हो जाता है। इस प्रकार प्रतिपक्षी धर्म की मौन स्वीकृति का नाम ही उपेक्षा या सापेक्षत्व है।
‘छोड़ने योग्य मानने' का अर्थ तो यहाँ घटित ही नहीं होता, क्योंकि इससे बड़े हास्यास्पद अर्थ निकलते हैं। जैसे 'नित्यत्व धर्म अनित्यत्व-सापेक्ष है' इसका अर्थ यह निकलेगा कि अनित्यत्व उपेक्षा करने योग्य है, अर्थात् छोड़ने योग्य है। तथा 'अनित्यत्व नित्यत्वसापेक्ष है' इससे यह अर्थ फलित होगा कि नित्यत्व छोड़ने योग्य है। अब ये धर्म कैसे छोड़े जा सकेंगे, यह समझ के बाहर है। इसी प्रकार व्यवहारनय निश्चय-सापेक्ष होता है। अब यदि 'सापेक्ष' शब्द से 'उपेक्षा करने योग्य' अर्थात् 'छोड़ने योग्य' अर्थ ग्रहण किया जाय तो निश्चयनय का विषयभूत शुद्धोपयोगरूप मोक्षमार्ग भी छोड़ने योग्य सिद्ध होगा। इस प्रकार सापेक्षत्व अथवा उपेक्षा शब्द की उक्त विद्वानों द्वारा की गई यह व्याख्या केवली भगवान् के उपदेश को उलट-पुलट देनेवाली है, अतः भ्रान्तिपूर्ण एवं अग्राह्य है।
आचार्य जयसेन ने स्पष्ट किया है कि निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्ग को साध्य-साधकरूप में स्वीकार करते हुए प्राथमिक भूमिका में व्यवहारमोक्षमार्ग का आश्रय लेकर निश्चयमोक्षमार्ग के अवलम्बन की सामर्थ्य अर्जित करना, तत्पश्चात् व्यवहारमोक्षमार्ग को छोड़कर निश्चयमोक्षमार्ग का अवलम्बन करना ही दोनों को परस्परसापेक्षरूप से ग्रहण करना है। इसी प्रकार ग्रहण करने से जीव मोक्ष प्राप्त करने में समर्थ होता है, अन्यथा नहीं।' १. अष्टशती/देवागमकारिका, १०८ २. "तच्च वीतरागत्वं निश्चयव्यवहारनयाभ्यां साध्य-साधकरूपेण परस्परसापेक्षाभ्यामेव
भवति मुक्तिसिद्धये न च पुनर्निरपेक्षभ्यामिति वार्तिकम्। तद्यथा ये केचन विशुद्ध
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