Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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दशम अध्याय मोक्षमार्ग की अनेकान्तात्मकता
निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्ग में साध्य-साधकभाव है, इसलिए वे परस्पर सापेक्ष हैं। वे एक-दूसरे को ठुकराकर मोक्ष उपलब्ध कराने में समर्थ नहीं होते, क्योंकि व्यवहारमोक्षमार्ग का साधन मिले बिना निश्चयमोक्षमार्ग की सिद्धि असम्भव है और निश्चयमोक्षमार्ग के बिना मोक्षप्राप्ति सम्भव नहीं है। व्यवहारमोक्षमार्ग स्वयं मोक्ष प्राप्त नहीं करा सकता। इसलिए जैसे निश्चयमोक्षमार्ग स्वयं की सिद्धि के लिए व्यवहारमोक्षमार्ग की अपेक्षा रखता है, वैसे ही व्यवहारमोक्षमार्ग को मोक्ष की सिद्धि के लिए निश्चयमोक्षमार्ग की अपेक्षा होती है। अत: आवश्यकतानुसार दोनों का अवलम्बन अनिवार्य होता है। कारण यह है कि जीवों में आरम्भ से ही उच्च आचरण की योग्यता नहीं होती। शक्ति के अनुसार आचरण करते हए योग्यता को क्रमश: विकसित किया जाता है, तब उच्चाचरण की सामर्थ्य आ पाती है। प्राथमिक अवस्था में मिथ्यात्व और विषयकषायों की इतनी प्रचुरता एवं प्रबलता होती है कि वहाँ निश्चयमोक्षमार्ग का अवलम्बन सम्भव नहीं होता, वहाँ व्यवहारमोक्षमार्ग का ही अवलम्बन कार्यकारी होता है। जब व्यवहारमोक्षमार्ग पर चलकर मिथ्यात्वकषायों का उपशम-क्षयोपशम करते हुए जीव उस अवस्था को प्राप्त कर लेता है, जहाँ निश्चयमोक्षमार्ग का अवलम्बन सम्भव होता है, वहाँ केवल निश्चयमोक्षमार्ग ही अवलम्बनीय होता है, वहाँ व्यवहारमोक्षमार्ग की उपयोगिता समाप्त हो जाती है, फलस्वरूप वह त्याज्य हो जाता है। अवस्थानुरूप उपाय ही कार्यकारी
व्यवहार और निश्चय मोक्षमार्ग तो उपाय हैं। उपायों का प्रयोग परिस्थिति के अनुसार होता है। जहाँ जिस उपाय के प्रयोग-योग्य परिस्थिति होती है, उसी के प्रयोग से लक्ष्य की सिद्धि हो सकती है। जिस उपाय के प्रयोगयोग्य परिस्थिति नहीं है, उसके प्रयोग से न केवल वह विफल हो जाता है, अपितु विपरीत परिणाम भी उत्पन्न करता है। जैसे सभी ओषधियाँ किसी न किसी रोग को दूर करने का
१. "किं च निर्विकल्पसमाधिरूपे निश्चये स्थित्वा व्यवहारस्त्याज्य:, किं तु तस्यां
त्रिगुप्तावस्थायां व्यवहारः स्वयमेव नास्तीति तात्पर्यार्थः। एवं निश्चयनयेन व्यवहारः प्रतिषिद्ध इति।" समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा २७६-२७७
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