Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१८८ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
का साधक इसलिये नहीं कहा गया है कि वह निश्चयधर्म की सिद्धि में सहायक है, अपितु " चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सविकल्पदशा में व्यवहारधर्म निश्चयधर्म के साथ रहता है, इसलिए सहचर होने के कारण साधक ( निमित्त ) कहा गया है । "
यह व्याख्या भ्रान्तिपूर्ण है । यद्यपि चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सविकल्प दशा में लब्धिरूप निश्चयधर्म के साथ व्यवहारधर्म अनिवार्यत: रहता है तथापि सहचरतामात्र से वह निश्चयधर्म का साधक नहीं कहलाता, अपितु वह शुद्धोपयोग सम्भव न होने की अवस्था में मोहजनित विषय - कषायरूप दुर्ध्यान का निरोध कर शुद्धोपयोग की भूमिका का निर्माण करता है, इस कारण साधक कहलाता है । इसीलिये ब्रह्मदेवसूरि ने कहा है कि चतुर्थ, पञ्चम तथा षष्ठ गुणस्थानों में परम्परया शुद्धोपयोग का साधक शुभोपयोग उत्तरोत्तर अधिक मात्रा में रहता है। '
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यदि मात्र सहचरता से व्यवहारधर्म को निश्चयधर्म का साधक माना जाय तो साहचर्य तो चतुर्थ और पञ्चम गुणस्थानों में विषयकषायभावों का भी रहता है तथा उच्चतर गुणस्थानों में सूक्ष्म रागादिभावों का रहता है, क्या उन्हें भी निश्चयधर्म का साधक माना जा सकता है ? इसके अतिरिक्त जैसे व्यवहारधर्म को निश्चयधर्म का साधक कहा जाता है, वैसे सहचर भाव के कारण क्या निश्चयधर्म को व्यवहारधर्म का तथा गुणस्थानानुसार रागादि भावों का साधक कहा जा सकता है ? यदि नहीं, तो क्या कारण है कि व्यवहारधर्म को ही सहचरभाव के कारण निश्चयधर्म का साधक कहा जाता है ? स्पष्ट है कि वह वास्तव में शुद्धोपयोगरूप निश्चयधर्म का साधक है, इसीलिये साधक कहा जाता है।
अबाधकत्व साधकत्व नहीं है
चर्चित तत्त्वज्ञानियों ने निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म के साध्य - साधकभाव की दूसरी व्याख्या यह की है कि सम्यग्दर्शन हो जाने पर ज्ञान और वैराग्यशक्ति के कारण शुभभाव आत्मविशुद्धि तथा उसकी वृद्धि में बाधक नहीं बन पाते। इसलिये उन्हें परम्परया मोक्ष का हेतु कहा गया है, वे आत्मविशुद्धि को उत्पन्न करते हैं, इसलिये नहीं ।
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यह व्याख्या अद्भुत है। 'बाधक न बनने वाले तत्त्व को हेतु ( साधक )
१. जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा / भाग १ / पृष्ठ १२९
२. “ततोऽप्यसंयतसम्यग्दृष्टिश्रावकप्रमत्तसंयतेषु पारम्पर्येण शुद्धोपयोगसाधक उपर्युपरि तारतम्येन शुभोपयोगो वर्तते । " बृहद्रव्यसंग्रह / ब्रह्मदेवटीका/गाथा ३४
३. जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा / भाग २ / पृ० ७८०
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