Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१९० / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
मोक्ष का साधक क्यों नहीं कहा गया ? व्यवहारचारित्र में विषयभोग का विधान क्यों नहीं किया गया ? संयम का ही विधान क्यों किया गया ? आचार्यों ने विषयभोग को व्यवहारधर्म संज्ञा क्यों नहीं दी और निश्चयधर्म तथा विषयभोग में साध्यसाधकभाव प्रतिपादित क्यों नहीं किया? उन्होंने व्रत-शील-संयमादि को ही व्यवहारधर्म नाम क्यों दिया और उन्हें ही निश्चयधर्म का साधक क्यों बतलाया ? इसका एकमात्र समाधान यही है कि अबाधक होने मात्र से कोई वस्तु साधक नहीं कहलाती, अपितु कार्यसिद्धि में बाधक तत्त्वों को दूरकर उसकी सिद्धि की प्रक्रिया को सुकर बनाने से साधक कहलाती है। शुभोपयोग उपर्युक्त प्रकार से शुद्धोपयोग के मार्ग की बाधा दूरकर उसका पथ प्रशस्त करता है, इसलिए उसे उसका साधक कहा गया है। विषयभोग ऐसा नहीं करता, इसलिए आचार्यों ने उसे शुद्धोपयोग का साधक नहीं कहा। अत: चर्चित विद्वज्जनों का यह मत समीचीन नहीं है कि आत्म-विशुद्धि में अबाधक होने से ही शुभोपयोग को शुद्धोपयोग या मोक्ष का साधक कहा गया है। तथ्य यह है कि यह शुद्धोपयोग के मार्ग की बाधा का निवारक है, इसलिए इसे साधक कहा गया है। अवरोधनिवारकत्व के कारण ही नियतपूर्वभाव
कथित विद्वज्जनों ने साध्य-साधकभाव की एक व्याख्या यह की है कि शुद्धोपयोग के पूर्व शुभोपयोग होने का नियम है। मात्र इस क्रम के कारण व्यवहारधर्म को निश्चयधर्म का साधक कहा गया है।' अर्थात् वे मानते हैं कि व्यवहारधर्म निश्चयधर्म की प्राप्ति में अवरोधनिवारकरूप से कोई योगदान नहीं करता, बस निश्चयधर्म के पूर्व उसके होने का नियममात्र रहता है।
यहाँ प्रश्न है कि जब वह निश्चयधर्म की प्राप्ति में कोई योगदान नहीं करता, तो उसके पूर्व में होने का नियम क्यों है ? जब वह अजागलस्तन के समान सर्वथा निरर्थक है, तो इससे सिद्ध है कि वह न होवे तो भी निश्चयधर्म की प्राप्ति हो सकती है, अर्थात् साधक अशुभोपयोग से सीधे शुद्धोपयोग का अवलम्बन कर सकता है। किन्तु, यह आगमविरुद्ध एवं अनुभवविरुद्ध है। साधक के शुभोपयोग की अवस्था में आए बिना शुद्धोपयोग सम्भव नहीं है, क्योंकि अशुभोपयोग की दशा शुद्धोपयोग के सर्वथा प्रतिकूल है। शुभोपयोग शुद्धोपयोग के अनुकूल भूमिका का निर्माण करता है, इसलिए उसका पूर्व में आना निरर्थक न होकर सोद्देश्य होता है। अत: पूर्व में आने मात्र से नहीं, अपितु शुद्धोपयोग में सहायक होने से ही व्यवहारधर्म को निश्चयधर्म का साधक कहा गया है।
१. जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा/भाग २/पृ० ५८९
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