Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१८४ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
की संज्ञा दी गयी है। इस प्रकार की साधना उक्त निश्चयधर्म की पूर्ववर्ती ही हो सकती है, सहवर्ती नहीं, क्योंकि उस समय उसकी ( लब्धिरूप निश्चयधर्म की ) अभिव्यक्ति ही नहीं हुई होती है। ऐसा होते हुए भी वह उसकी साधक होती है, अत: व्यवहारधर्म कहलाती है। पं० टोडरमल जी के पूर्वोदधृत वचनों से यह स्पष्ट है कि किसी भी साधना को व्यवहार-धर्म कहलाने के लिये निश्चयधर्म का सहवर्ती होना आवश्यक नहीं है, अपितु उसका इस प्रकार सम्पादन आवश्यक है कि वह निश्चयधर्म की सिद्धि में सहायक बन सके। हाँ, उसके लिये निश्चयधर्म की पहचान अनिवार्य है, अन्यथा उक्त प्रकार से सम्पादन सम्भव नहीं हैं।' जब गन्तव्य का ही बोध न हो तो उस दिशा में गमन कैसे हो सकता है ?
आचार्य कुन्दकुन्द ने अपरभाव में स्थित जीवों को व्यवहारनय द्वारा उपदेश्य बतलाया है तथा आचार्य अमृतचन्द्र ने प्राथमिक साधकों के लिये ( जो कि मिथ्यादृष्टि होते हैं ) जो सुखपूर्वक तीर्थावतरण में सहायक होता है उस भिन्नसाध्यसाधनभाव को व्यवहारमोक्षमार्ग शब्द से अभिहित किया है और पं० जयचन्द्र जी ने सम्यग्दर्शन ( जो लब्धिरूप निश्चयधर्म का अविनाभावी है ) की प्राप्ति के लिये जिनवचनों के श्रवण, जिनबिम्बदर्शन, जिनगुरु की भक्ति, सत्संग आदि को आवश्यक बतलाया है और उसे व्यवहारमार्ग कहा है। इन आर्ष प्रमाणों से सिद्ध है कि लब्धिरूप निश्चयधर्म के पूर्व की वह सम्पूर्ण साधना जो उक्त निश्चयधर्म की प्राप्ति में सहायक होती है, व्यवहारधर्म कहलाती है। अत: निश्चयधर्म के पूर्व भी व्यवहारधर्म होता है।
यह सत्य है कि जिस गुणस्थान का लब्धिरूप निश्चयधर्म प्रकट न हुआ हो, उस गुणस्थान का बाह्यधर्म धारण करना निरर्थक हैं। उसे व्यवहारधर्म नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह शुद्धोपयोग का साधक नहीं हो सकता। इसलिये आगम में भावलिंग ( लब्धिरूप निश्चयधर्म ) प्रकट हुये बिना जो अट्ठाईस मूलगुणरूप द्रव्यलिंग ( बाह्यधर्म ) धारण किया जाता है, उसकी निन्दा की गयी है, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि चतुर्थ गुणस्थान के पूर्व की साधना ( जिनवचनश्रवण, १. मोक्षमार्गप्रकाशक/अधिकार ७/पृ० २५७ २. (क) समयसार, गाथा १२ (ख) जैन अध्यात्म में आध्यात्मिक विकास के चौदह स्तर माने गये हैं, उन्हें गुणस्थान कहते हैं। क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी ने प्रथम सात गुणस्थानों को अपरमभाव कहा है।
जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश/भाग २/पृ० ५६४ ३. पञ्चास्तिकाय/तत्त्वप्रदीपिका/गाथा १७२ ४. समयसार/भावार्थ/गाथा १२ -
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