Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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साध्यसाधकभाव की भ्रान्तिपूर्ण व्याख्याएँ । १७७
श्री अमृतचन्द्र सूरि ने कहा है कि जैसे रजक जल, शिलातल आदि भिन्न साधनों से वस्त्र को साफ करता है उसी प्रकार स्वात्मा से भिन्न जीवादि तत्त्वों के श्रद्धान, ज्ञान और व्रतादि-साधना से आत्मा का संस्कार होता है और क्रमश: विशुद्धि आती है। वे अन्यत्र भी कहते हैं कि यद्यपि पश्चाचार आत्मा के स्वभाव नहीं हैं तथापि उनके द्वारा परम्परया शुद्धात्मा की उपलब्धि होती है।' पं० आशाधर जी का भी मत है कि निश्चयधर्म में अनुराग के कारण जो क्रिया उत्पन्न होती है, वह अभ्युदय का हेतु होने से धर्म है। उससे नये पाप का निरोध और पुराने का विनाश होता है।
यह तो निर्विवाद है कि सात तत्त्वों के चिन्तन, जिनबिम्बदर्शन, सत्संग, अनुकम्पा आदि से परिणामों में जो निर्मलता आती है वह मिथ्यात्वादि सप्त प्रकृतियों के उपशमादि और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में हेतु बनती है।
इन सब प्रमाणों और युक्तियों से स्पष्ट है कि शुभपरिणामों से आत्मा में आंशिक शुद्धि आती है और यत: शुभपरिणाम आत्मा की आंशिक शुद्धि के हेतु हैं, अत: सिद्ध होता है कि व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्ग का परम्परया साधक है, फलस्वरूप उनमें परस्परसापेक्षता है। सम्यग्दृष्टि के शुभोपयोग में धर्म का अंश
आचार्यों ने सम्यग्दृष्टि के शुभोपयोग को परम्परया मोक्ष का साधक कहा है। इससे स्पष्ट है कि सम्यग्दृष्टि के शुभोपयोग और मिथ्यादृष्टि के शुभोपयोग में अन्तर है। अन्तर यह है कि प्रथम वैराग्यभावयुक्त ( आसक्तिरहित ) होता है
और द्वितीय रागभावयुक्त ( आसक्तिसहित )। अत: सम्यग्दृष्टि के शुभोपयोग में वैराग्यभावरूप शुद्धता या धर्म का अंश होता है। किन्तु, निश्चय-मोक्षमार्ग और व्यवहार-मोक्षमार्ग में साध्य-साधकभाव का निषेध करने के लिये पूर्वोक्त विद्वान इसे स्वीकार नहीं करते। वे मानते हैं कि सम्यक्त्वसहित शुभोपयोग में शुद्धता का अंश नहीं है। जो उसमें शुद्धता का अंश मानते हैं, उनकी मान्यता को भ्रान्त सिद्ध करते हुये वे कहते हैं -
"अपरपक्ष ने सम्यग्दर्शनरूप शुद्धभाव और कषायरूप ( शुभरागरूप )
१. पञ्चास्तिकाय/तत्त्वप्रदीपिका/गाथा १७२ २. प्रवचनसार/तत्त्वदीपिका ३/२ ३. निरुन्धति नवं पापमुपात्तं क्षपयत्यपि ।
धर्मेऽनुरागाद्यत्कर्म स धर्मोऽभ्युदयप्रदः ।। अनगारधर्मामृत १/२४ ४. प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्ति ३/५५
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