Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१७४ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
( निर्विकल्प समाधि ) को प्राप्त करने की भूमिका निर्मित होती है, उसके बिना नहीं। अव्रतों में रहकर निर्विकल्प समाधि में नहीं पहुँचा जा सकता । यद्यपि व्रतों में स्थिर रहकर भी निर्विकल्प समाधि प्राप्त नहीं की जा सकती, तथापि यह विशेषता है कि व्रतसाधना में तो निर्विकल्प समाधि की भूमिका निर्मित होती है, किन्तु अव्रतों से कदापि नहीं ।
१
व्रत- तपश्चरणादि से शुद्धात्मभावना का सामर्थ्य आता है। यह आचार्य जयसेन के निम्नलिखित कथन से प्रमाणित है
"यस्तु शुद्धात्मभावनासाधनार्थं बहिरङ्गव्रततपश्चरणपूजादिकं करोति स परम्परया मोक्षं लभते । " "
,,२
शुद्धात्मभावना की साधना के लिये बहिरंग व्रततपश्चरणादि किये जाते हैं। । व्रततपश्चरणादि से सीधे शुद्धात्मभावना की सिद्धि नहीं होती । अतः यही तात्पर्य फलित होता है कि व्रततपश्चरणादि शुद्धात्मभावना की साधना करने योग्य सामर्थ्य उत्पन्न करते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र का भी मत है कि महाव्रतादि चारित्राचार तथा अनशनादि ‘तप आचार' से शुद्धात्म-प्राप्ति सम्भव होती है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि शुभयोग में स्थित होने से अशुभयोग छूटता है, फिर शुद्धोपयोग में स्थित होने पर शुभयोग का निरोध होता है। * निष्कर्ष यह कि शुभोपयोग में दृढ़ होने के बाद ही शुद्धोपयोग सम्भव होता है, अशुभोपयोग की दशा में नहीं। पं० टोडरमलजी का कथन है कि सम्यग्दृष्टि आत्मा को शुभोपयोग होने पर शुद्धोपयोग शीघ्र सम्भव होता है।' इन कथनों से स्पष्ट है कि शुभोपयोग से शुद्धोपयोग में पहुँचने की क्षमता का आविर्भाव होता है । जैसे बी० ए० उत्तीर्ण हो जाने पर व्यक्ति में एम० ए० की कक्षा में पहुँचने की योग्यता आ जाती है और यदि वह उसमें प्रवेश लेना चाहे तो, उसे प्रवेश शीघ्र मिल सकता है, वैसे ही सम्यग्दृष्टि में शुभोपयोग की स्थिति का निर्माण हो जाने पर शुद्धोपयोग की
१. अव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठितः ।
त्यजेत्तान्यपि सम्प्राप्य परमं पदमात्मनः ।। समाधितन्त्र / श्लोक ८४
२. समयसार / तात्पर्यवृत्ति/गाथा १४६
३. “अहो ! मोक्षमार्गप्रवृत्तिकारणपञ्चमहाव्रतलक्षणचारित्राचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तावदासीदामि यावत्त्वत्प्रसादात् शुद्धात्मानमुपलभे ।
प्रवचनसार/तत्त्वदीपिका ३ / २
४. सुहजोगस्स पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स ।
सुहजोगस्स णिरोहो सुद्धुवजोगेण संभवदि ।। बारसाणुवेक्खा / गाथा, ६३
मोक्षमार्गप्रकाशक/अधिकार ७ / पृ० २५६
५.
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