Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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१७२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन
है। भिन्न कारण से भिन्न कार्य उत्पन्न नहीं होता। अत: व्यवहारधर्म निश्चयधर्म का साधक नहीं कहा जा सकता।
तब आचार्यों ने उनमें साध्य-साधकभाव क्यों कहा है ? इसके समाधान में उक्त विद्वान कहते हैं कि आचार्यों ने ऐसा इसलिये कहा है कि व्यवहारधर्म -
(क) निश्चयधर्म का सहचर है।' (ख) निश्चयधर्म में बाधक नहीं है।' (ग) निश्चयधर्म का पूर्ववर्ती है।' (घ) निश्चयधर्म का अनुमापक है।'
विद्वानों की उपर्युक्त मान्यताएँ समीचीन नहीं हैं, यह निम्नलिखित युक्तियों और प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है - व्यवहारधर्म निश्चयधर्म की सामर्थ्य का जनक
यह ठीक है कि व्यवहारधर्म सविकल्पावस्था से निर्विकल्पावस्था में नहीं ले जा सकता और वह बन्ध का हेतु है। किन्तु, यह भी सत्य है कि निर्विकल्पावस्था या शुद्धात्मा का अवलम्बन सहसा नहीं हो सकता। उसके लिये सामर्थ्य की आवश्यकता है। यह व्यवहारधर्म से आती है। कीचड़ में सने हुये शरीर का उसी अवस्था में शृंगार सम्भव नहीं है। उसे पहले जल से साफ कर शृंगारयोग्य बनाना होगा, तब कहीं कोई शृंगार सफल हो सकता है। जो मन अशुभ वासनाओं के पंक से लिप्त है, उसका एकदम वीतरागभाव में पहुँचना कैसे सम्भव है ? श्री ब्रह्मदेव सूरि ने स्पष्ट कहा है -
"गृहस्थों के लिये आहारदान आदि ही परम धर्म है। वे सम्यक्त्वसहित उसी धर्म से परम्परया मोक्ष प्राप्त करते हैं। यदि कोई कहे कि वह परमधर्म क्यों है ? तो इसका समाधान यह है कि गृहस्थ निरन्तर विषयकषायों के अधीन रहने के कारण आर्त-रौद्र ध्यान से ग्रस्त रहते हैं। अत: उनके लिये निश्चयरत्नत्रयात्मक शुद्धोपयोगरूप परमधर्म सम्भव नहीं है।"५
१. जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा/भाग १/पृ० १२९, पृ० १४५ २. वही/भाग २/पृष्ठ ७८० ३. फिर भी स्वभावसन्मुख होने के पूर्व अशुभ विकल्प न होकर नियम से शुभविकल्प होता ही है। इसलिए ही व्यवहारनय से व्यवहारधर्म निश्चयधर्म का साधक कहा है।
वही/भाग २/पृष्ठ ५८९ ४. वही/भाग २/पृष्ठ ७९५ ५. “गृहस्थानामाहारदानादिकमेव परंमधर्मस्तेनैव सम्यक्त्वपूर्वेण परम्परया मोक्षं लभन्ते।
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